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गाथा-११७,११८-------
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9-52-3 ***** * श्री उपदेश शुद्ध सार जी
(अवयासं न्यान विन्यान) अनेक शास्त्रों का ज्ञान करने का अभ्यास करता है।
(पर पिच्छं) पर को जानने, पर को बताने के लिये (पर पुग्गल सहकारं) पर * वस्तु, पुद्गल का सहकार करता है अर्थात् शारीरिक क्रिया संयम तप आदि तथा
पर वस्तु के त्याग का अभ्यास, साधना करता है (अवयास राग) ऐसे अभ्यास का राग (दुग्गए पत्तं) दुर्गति का पात्र बनाता है।
विशेषार्थ-जनरंजन राग का नौवां भेद अभ्यास राग है। साधना, अभ्यास करने का राग, पर को जानने, पर को बताने के लिये भेदज्ञान आदि अनेक शास्त्रों का ज्ञान करना तथा शारीरिक क्रिया संयम तप आदि एवं पर वस्तु के त्याग को मुक्ति मार्ग मानकर उसी में लगे रहना, इससे अपने को ज्ञानी साधक मानना, दूसरे लोगों से प्रशंसा प्रभावना चाहना, इसी राग भाव में लगे रहना दुर्गति का पात्र बनाता है।
पर पदार्थ संबंधी ज्ञान विज्ञान जिसको होता है, वह उसका बहुत राग रखता है, हमेशा शास्त्रों का अध्ययन करने में लगा रहता है। अपने को बड़ा ज्ञानी विद्वान समझता है। लोगों को अनेक शास्त्रों के विषय में बताता है, भेदज्ञान की बात करता है, स्वयं आत्मज्ञान से शून्य रहता है। शारीरिक क्रिया करते हुए अपने को साधक त्यागी व्रती साधु मानता है, इसी की साधना अभ्यास में लगा रहता है, अपने को मुक्तिमार्ग का पथिक मानता है। दूसरों से प्रभावना प्रसिद्धि कराता है, पैर पुजवाता है, ऐसे साधना का रागी जीव दुर्गति को प्राप्त करता है।
अपने दोष मिटाना हो, मुक्त होना हो तो एक ही उद्देश्य हो- तत्त्वज्ञान की प्राप्ति करना । पर अपेक्षा ज्ञान और शारीरिक क्रिया का अहंकार इसमें प्रधान बाधा है। साधक लोग प्राय: बुद्धि से जानने वाले पदार्थ, शरीर आदि को बुद्धि द्वारा पृथक् समझकर तथा बुद्धि के द्वारा दार्शनिक विषयों को लिखकर अथवा सीखकर उसे ज्ञान की संज्ञा देते हैं और अपने आपको ज्ञानी मान लेते हैं वह बहुत बड़ी भूल है।
साधक को चाहिये कि वह अपनी परिवर्तनशील दशा में अपनी स्थिति न * माने और न देखे, अपने स्वरूप को ही देखे, स्वरूप तक कभी सृष्टि पहुँच नहीं 4 सकती। वर्तमान स्थिति से लेकर निर्विकल्प स्थिति तक दशा अर्थात् अवस्था * (पर्याय) है जो कि परिवर्तनशील है। स्वरूप, अवस्था नहीं है अपितु वह अवस्थातीत और अवस्था का प्रकाशक है।
राग और द्वेष से की गई प्रवृत्ति और निवृत्ति से जीव को बंध होता है और *** * ****
तत्त्वज्ञान पूर्वक की गई उसी प्रवृत्ति और निवत्ति से मोक्ष होता है।
जो जीव निश्चयनय के स्वरूप को तो जानता नहीं और केवल व्यवहार मात्र बाह्य परिग्रहादि का त्याग करता है, उपवासादि को अंगीकार करता है, इस प्रकार बाह्य वस्तु में हेय उपादेय बुद्धि से प्रवर्तन करता है वह जीव अपने स्वरूप अनुभव रूप शुद्धोपयोगमय धर्म का नाश करता है।
प्रश्न-इस जनरंजन राग भाव से क्या होता है?
समाधान-यह जनरंजन राग भाव संसार में परिभ्रमण कराता है,जनरंजन राग से पर की सत्ता मानना, पर में उलझे रहना, अपने हिताहित का कोई विवेक न होना, आत्म कल्याण करने मुक्त होने के लिये जो मौका मिला है इसका अज्ञानता से दुरुपयोग कर संसारी जीवों के चक्कर में लगा रहता है।
प्रश्न- क्या कारण है जो जीव राग भाव में फंसा रहता है?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - जिन उत्तं नहु दिह, जन उत्तं जन रंजनस्य सभावं । न्यान विन्यान न रुचियं, अन्यानं अन्मोय न्यान विरयंमि ॥११७॥ रागसहावनगलियं, नहुगलियं मिच्छ विषयसल्यंच। जिन उत्त ससंक निसंकं, अगुरु अजिन सरनि संसारे ॥ ११८ ॥
अन्वयार्थ - (जिन उत्तं नहु दि8) जिनेन्द्र भगवान के कहे हुए तत्त्वों पर दृष्टि नहीं देते हैं (जन उत्तं जन रंजनस्य सभावं) लोगों के, संसारी जीवों के कहे अनुसार जिनसे जनता रंजायमान हो, ऐसे भावों में लगे रहते हैं (न्यान विन्यान न रुचियं) उनको आत्मज्ञान व भेदज्ञान नहीं रुचता है (अन्यानं अन्मोय) वे अज्ञान की अनुमोदना करते हैं, आलंबन रखते हैं और (न्यान विरयंमि) ज्ञान से विरक्त रहते हैं।
(राग सहाव न गलिय) जिसका सांसारिक राग का स्वभाव नहीं गला है (नहु गलियं मिच्छ विषय सल्यं च) न उसका मिथ्यात्व गला है, न विषय वासना गली है और न शल्ये मिटी हैं (जिन उत्त ससंक) वह जिनेन्द्र कथित उपदेश में तो शंका रखता है, श्रद्धान नहीं लाता है (निसंकं अगुरु अजिन) और नि:शंक होकर अगुरु, अदेव के वचनों को मानता है (सरनि संसारे) इससे संसार में ही परिभ्रमण करता है। विशेषार्थ-जो जीव जिनेन्द्र परमात्मा के कहे हुए तत्त्वों पर दृष्टि नहीं,
HTAKAM
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