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गाथा-११६-----
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长宗示出示帝命
------- श्री उपदेश शुद्ध सार जी * इन कर्म प्रकृतियों को विशेष महत्व देना, इनकी सत्ता मानना, अपने स्वरूप का
बोध बहुमान नहीं होना । ज्ञान विज्ञान भेदज्ञान की बातें करना परंतु पर को ही जानना, पहिचानना, उसकी ही सत्ता, अस्तित्व मानना, अपने स्वरूप की सत्ता का बोध न होना, बहिरात्म स्वभाव से मुक्त न होना । कर्म प्रकृति की सत्ता को विशेष महत्व देना, अपनी आदत से मजबूर होना, अपने संस्कार नहीं बदलना, नहीं तोड़ना और पर की आलोचना निन्दा बुराई करना, स्वयं को नहीं देखना, इस प्रकार पर दृष्टि से नरक का बीज बोता है। जनरंजन राग में ऐसा राग भाव होता है कि जिससे वे दूसरों की महिमा गाया करते हैं, दूसरों की प्रसिद्धि करते हैं, कर्म प्रकृति को बड़ा मानते हैं, बड़े ज्ञानी विद्वान हैं परंतु परभाव में अनुरक्त रहते हैं। लौकिक भाव और जड़ पुद्गल की सत्ता को महत्व देते हैं। अपने आत्म स्वरूप का बोध, स्वयं की सत्ता शक्ति को नहीं जानते-मानते, बहिरात्म भाव में लगे रहते हैं। वे शरीर में व शरीर की क्रिया में ही रागी रहते हैं, उनको आत्मा की बात नहीं सुहाती। जड़ के अस्तित्व सत्ता को मानने वाले नरक जाने का बीज बोते हैं, ऐसे जीव के इस प्रकार के परिणाम होते हैं
१. तीव्र मोह के उदय से होने वाली आहार, भय, मैथुन और परिग्रह संज्ञा।
२. तीव्र कषाय के उदय में रंगी हुई मन वचन काय की प्रवृत्ति रूप कृष्ण नील कापोत, यह तीन लेश्यायें।
३.राग-द्वेष के उदय के प्रकर्ष से तथा इन्द्रियों की आधीनता रूप राग-द्वेष के उद्रेक से- प्रिय संयोग, अप्रिय का वियोग, कष्ट से मुक्ति और आगामी भोगों की इच्छा रूप आर्तध्यान।
४. कषाय से चित्त के क्रूर होने से हिंसा, असत्य, चोरी और विषय संरक्षण में आनंद मानने रूप रौद्र ध्यान।
५. शुभ कर्म को छोड़कर दुष्ट कर्मों में लगा हुआ ज्ञान । दर्शन मोहनीय तथा चारित्र मोहनीय के उदय से होने वाला अविवेक रूप मोह यह सब नरक आयु के बंध के कारण हैं, इनसे जीव नरक में जाता है।
__ अचानक उपस्थित होने वाला इष्ट या अनिष्ट दैवकृत भाग्याधीन है, उसमें बुद्धि पूर्वक व्यापार की अपेक्षा नहीं है और प्रयत्न पूर्वक होने वाला इष्ट या अनिष्ट * अपने पौरुष का फल है क्योंकि उसमें बुद्धि पूर्वक व्यापार की अपेक्षा है।
कर्म प्रकृति और आत्मा दोनों को ही अनादि जानों, अनादि से दोनों का संयोग है। जब तक जीव की दृष्टि कर्म प्रकृति की ओर रहती है एवं *प्रकृति के साथ उसकी मानी हुई एकता रहती है तब तक वह परमात्म
स्वरूप होते हुए भी बहिरात्मा कहा जाता है।
जिसका कोई आदि अर्थात् कारण न हो वह अनादि कहा जाता है। कर्म प्रकृति और जीव आत्मा दोनों अनादि से समान, एक क्षेत्रावगाह हैं किंतु जीव कर्म प्रकृति से विलक्षण है। आत्मा अविकारी अविनाशी परमात्मा है किंतु कर्म प्रकृति को शास्त्रों में जड़ और विकारों से युक्त परिवर्तनशील नाशवान कहा है।
साधक को ऐसा स्पष्ट समझ लेना चाहिये कि संपूर्ण विकार क्रियायें और पदार्थादि प्रकृति सम्भूत हैं तथा मन, बुद्धि, इन्द्रियां आदि भी कर्म प्रकृति जन्य हैं अत: इनके द्वारा जो चेष्टायें हो रही हैं वे न तो मुझमें हैं, न मेरी हैं और न मेरे लिये हैं। जिस शरीर के साथ सम्बंध माना हुआ है उसी में सम्पूर्ण चेष्टायें हो रही हैं। वस्तुत: आत्मस्वरूप में कोई चेष्टायें हैं ही नहीं।
क्रिया मात्र पुद्गल कर्म प्रकृति में हो रही है, जैसे-शरीर का बढ़ना,श्वास का आना-जाना, भोजन का पचना आदि क्रियायें स्वत: प्रकृति में हो रही हैं किंतु मन बुद्धि पूर्वक होने वाली कुछ क्रियाओं, खाना-पीना, चलना-फिरना, उठना-बैठना, बोलना आदि को साधारण मनुष्य अपने द्वारा की हुई मानता है, यहाँ यह मंतव्य है कि वास्तव में संपूर्ण क्रियायें जड़ प्रकृति में हो रही हैं, उनमें से कुछ क्रियाओं के साथ अपना संबंध मानना भूल है। जीव वास्तव में स्वयं कर्ता न होते हुए भी अपने को कर्ता मान लेता है, ऐसे माने हुए कर्ता को मिथ्यादृष्टि बहिरात्मा कहा है। ऐसा दुर्बुद्धि जीव कर्म प्रकृति की विशेषता, महत्व मानता है. स्वयं के स्वरूप का बोध नहीं करता, इससे नरक का बीज बोता है। यह नियम है कि कर्म प्रकृति के जिस कार्य या दृश्य वर्ग (मन के शुभाशुभ भावों) में राग होता है, उसके विपरीत या विरोधी पदार्थों से द्वेष उत्पन्न हो जाता है। वैसे ही स्वयं चिन्मय चैतन्य स्वरूप होने से जितने अंश में आत्मा का संसार में राग होता है, उतने ही अंश में वह अपने चिन्मय स्वरूप से विमुख हो जाता है; अत: द्वेष के सर्वथा अभाव के लिये संसार में कहीं भी राग नहीं करना चाहिये। द्वेष के स्थूल रूप बैर, ईर्ष्या, घृणा, क्रोध एवं हिंसा आदि हैं जिससे नरक का बीजारोपण होता है।
९. अभ्यास राग अवयास रागजुत्तं, अवयासंन्यान विन्यान पर पिच्छं। पर पुग्गल सहकारं, अवयास राग दुग्गए पत्तं ॥ ११६ ॥
अन्वयार्थ - (अवयास राग जुत्त) अभ्यास, साधना का राग होता है
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层司法》答者各本
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