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गाथा- ११५H-----
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********* श्री उपदेश शुद्ध सार जी * वचनों को मानना (आलापं अन्मोय) व्यर्थ चर्चा, संसारी बकवाद में लगे रहना * (निगोय वीयम्मि) यह सब निगोद का बीज बोना है।
विशेषार्थ - जनरंजन राग का सातवां भेद अनुमोदना राग है । संसारी जीवों की हां में हां मिलाना, उनके उचित-अनुचित कार्यों की अनुमोदना प्रशंसा, प्रभावना करना ही अनुमोदना राग है, इससे तीव्र कर्मों का बंध होता है, जो निगोद का पात्र बनाता है। पर का आलंबन, पराश्रित पराधीन बनाता है। पराश्रितपने में अज्ञान रहता है क्योंकि अपने सत्स्वरूप का ज्ञान न होने से ही पराश्रयपना होता है। इसी अज्ञान से शल्य सहित रहता है, हमेशा भयभीत, भ्रमित चिंतित दु:खी रहता है। इसी से विषयों में रत रहता है और अगुरु संसारी जीव - माता, पिता, पत्नि, मित्र, बंधु, विद्यागुरु आदि की बातों में लगा रहता है, उन्हीं की चर्चा, वार्ता करता है, उनकी ही अनुमोदना करता है। ऐसे अनुमोदना राग से पाप कर्मों का बंधकर निगोद का बीज बोता है।
जनरंजन राग के कारण जीव करने, न करने योग्य कार्यों को करता है तथा संसारी जीव जिन पाप विषय कषाय आदि में रत रहते हुए अधर्म का सेवन, मिथ्यात्व का पालन करते हैं, अज्ञानी जीव उनकी अनुमोदना करता है, उनका सहयोग समर्थन करता है । अगुरुओं की बातों में लगा रहता है। अपने हित-अहित का कोई विवेक नहीं रखता, पराधीन पराश्रित रहता है जिससे अशुभ कर्मों का बंध करके निगोद का बीज बोता है।
मिथ्यात्व सबसे बड़ा पाप है, अज्ञानी जीव मिथ्यात्व में रत रहता है, भले ही जीव तथा राग भिन्न रहकर एक क्षेत्र में रहें तो भी दोनों कभी भी न तो एकरूप हुए और न ही हो सकते हैं। जिसे दु:ख का पंथ छोड़ना हो, संसार परिभ्रमण से छूटना हो तो पुण्य-पाप रागादि भाव दु:ख रुप हैं और मेरा स्वरूप आनंदमय है, ऐसे भेदज्ञान पूर्वक सब शुभ-अशुभ राग से हटकर अपने चैतन्य स्वरूप आत्मा का आश्रय करना होगा, तभी यह पराश्रय पराधीनता छूटती है।
शरीर-शरीर का और आत्मा-आत्मा का कार्य करता है, दोनों * भिन्न-भिन्न स्वतंत्र हैं। शरीर का परिणमन जिस समय, जिस प्रकार से जैसा * होने वाला होता है वह उसके स्वयं से ही होता है, इसमें जीव के हाथ की बात * कहाँ है ? आत्मा में ही राग और ज्ञान के परिणाम होते हैं वे आत्मा स्वयं करता * है। जब अपना-अपना कार्य करने में दोनों पदार्थ स्वतंत्र हैं तब बाहर के कार्य
कितने सिद्ध किये, इतने कार्य किये और इतने बाकी हैं, ऐसी बात को स्थान ही ***** * * ***
कहाँ है ? अज्ञानी इन्हीं शल्य विकल्पों में लगा रहता है। अगुरुओं की बातों में लगकर निगोद का पात्र बनता है।
इस अज्ञानमयी पराधीनता से छूटने के लिये स्वाध्याय, सत्संग द्वारा तत्त्व का निर्णय करना तथा शरीरादि और राग से भिन्न आत्म स्वरूप का भेदज्ञान का अभ्यास करना । रागादि से भिन्नता का अभ्यास करते-करते आत्मानुभव होता है। आत्मानुभव होने पर पराधीनपना जनरंजन राग विलाता है।
शुभाशुभ भाव और शरीरादि संयोग से भिन्न मैं चैतन्य तत्त्व भगवान आत्मा हूँ, ज्ञायक स्वभावी हूँ, ध्रुवतत्व शुद्धात्मा हूँ, यह प्रत्येक प्रसंग में याद रखना। भेदज्ञान का अभ्यास करना ही मनुष्य जीवन की सार्थकता है। अनादि अनंत ऐसा जो एक निज शुद्ध चैतन्य स्वरूप है, उसके स्व सन्मुख होकर आराधन करना वही परमात्मा होने का सच्चा उपाय है।
अज्ञान का अर्थ ज्ञान का अभाव नहीं है। अधूरे ज्ञान को पूरा ज्ञान मान लेना ही अज्ञान है। परमात्म तत्त्व ज्ञान स्वभावी होने से जीव में ज्ञान का सर्वथा अभाव हो ही नहीं सकता। केवल असत् क्षणभंगुर नाशवान पर्याय को असत् जानकर भी असत् से विमुख नहीं होता, यही उसका अज्ञान है यदि उस ज्ञान के अनुसार वह अपना जीवन बना ले तो अज्ञान सर्वथा मिट जायेगा। उद्देश्य और रुधि की भिन्नता साधक को अस्थिर रखती है।
८. प्रकृति राग प्रकृति राग सहियं, न्यानं विन्यान अन्मोय पर पिच्छं। बहिर सुभावन मुक्कं, प्रकृति रागं च नरय बीयम्मि ।। ११५॥
अन्वयार्थ - (प्रकृति राग सहियं) प्रकृति, आदत, संस्कार, स्वभाव एकार्थवाची हैं इनके राग सहित होना, कर्म प्रकृतियों में जुड़े रहना, उन्हें महत्व देना (न्यानं विन्यान अन्मोय) ज्ञान विज्ञान, भेदज्ञान की अनुमोदना करना, आलंबन रखना (पर पिच्छं) परंतु पर को ही पहिचानना,पर का ही महत्व मानना, अपने सत्स्वरूप को न जानना (बहिर सुभाव न मुक्कं) बहिरात्मपने के भाव को नहीं छोड़ता है (प्रकृति रागं च नरय वीयम्मि) ऐसे प्रकृति राग से नरक का बीज बोता है।
विशेषार्थ-जनरंजन राग का आठवां भेद प्रकृतिराग है। प्रकृति-आदत, स्वभाव, संस्कार को भी कहते हैं और द्रव्य कर्म की १४८ कर्म प्रकृति होती हैं।
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