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गाथा- ११३,११४***
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* ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी * महत्व देना ही अज्ञान मिथ्यात्व है जिससे नरकादि दुर्गतियों में जाना पड़ता है।
धर्म का पथ वास्तव में स्वरूप साक्षात्कार के लिये है और आर्थिक उन्नति पुण्य के उदय की उपयोगिता बस इतनी ही है कि इसके लिये देह और मन पूर्ण * स्वस्थ हो, मानव जीवन सच्चा ज्ञान पाने के लिये है। यह जीवन श्रम करने
अथवा इंद्रिय तृप्ति या अविद्या का सेवन करने के लिये नहीं मिला, इसे जो व्यर्थ गंवाता है वह नरकादि दुर्गति में जाता है।
६. राग का राग (काम भाव) रागस्य राग जुत्तं, विकहा विसनस्य अबंभ रूवेन। धम्मं च अधम्म उत्त, उत्तं रागं च दुग्गए पत्तं ॥ ११३ ॥
अन्वयार्थ - (रागस्य राग जुत्तं) राग के राग में युक्त होने पर (विकहा) विकथा-राजकथा, चोरकथा,स्त्रीकथा, भोजनकथा आदि व्यर्थ चर्चा (विसनस्य) व्यसनों का - जुआं खेलना, मांस भक्षण, शराब पीना, शिकार खेलना, चोरी करना, वेश्या सेवन तथा परस्त्री सेवन का राग होता है (अबंभ रूवेन) अब्रह्म, कुशील सेवन-कामभाव को ही हितकारी मानता है (धम्मं च अधम्म उत्तं) धर्म को अधर्म कहता है, इष्ट-अनिष्ट का कोई विवेक नहीं रहता (उत्तं रागं च दुग्गए पत्तं) ऐसा राग दुर्गति में ले जाता है।
विशेषार्थ - जनरंजन राग का छठवां भेद राग का राग, कामभाव है। इसमें युक्त होने पर चार विकथा और सात व्यसनों में ही रत रहता है, धर्म-अधर्म का कोई विवेक नहीं रहता, धर्म को अधर्म कहता है, सब क्रिया कर्म व्यर्थ बताता है। काम भाव की आसक्ति और विषयों के तीव्र राग से दुर्गति में चला जाता है।
अब्रह्म दस प्रकार का होता है -
१. स्त्री सम्बंधी विषयों की अभिलाषा। २. स्पर्शन इन्द्रिय में विकार होना। ३. वीर्य वृद्धि कारक आहार और रस का सेवन करना। ४. स्त्री से संसक्त शय्या
आदि का सेवन करना। ५. गुप्तांग को ताकना। ६. अनुराग वश उनका सम्मान 4करना । ७. वस्त्रादि से सजाना । ८. अतीत काल में की गई रति का स्मरण * करना। ९. आगामी रति की अभिलाषा। १०. इष्ट विषयों का सेवन।।
संज्ञा चार होती हैं-१. आहार, २. भय, ३. मैथुन, ४. परिग्रह । जिनसे पीड़ित होना तथा सेवन करने पर भी पीड़ित दु:खी रहना संज्ञा कहलाती है।
काम संकल्प से पैदा होता है, राग-द्वेष और चिंता तथा निद्रा का अभाव उसका परिणाम है, इसमें लोक लाज, लोक भय नहीं रहते। इसके अर्थात् काम के दश
वेग हैं- १.शोक, २. देखने की इच्छा, ३. दीर्घ उच्छवास, ४.ज्वर, ५. शरीर में १ दाह,६. भोजन में अरुचि,७. मूर्छा, ८. उन्माद, ९. मोह, १०. मरण।
रागी पर के पीछे दीवाना होता है, विरागी स्व के पीछे दीवाना होता है।
स्त्री की गंध मात्र भी, उसका देखना, स्पर्शन और वचन मात्र ही मुनि की सानंद वीतराग चित्तवृत्ति को तत्काल नष्ट कर देता है।
स्त्री अग्नि है, पुरुष घृत, पारा के सदृश है। अग्नि के संयोग से घृत पिघलता है, जलता है और पारा उड़ जाता है।
स्त्री की दृष्टि, दृष्टि विष सर्प की तरह होती है और उसका नाम स्मरण भूत की तरह भयानक होता है।
आंख, कान, जिव्हा तथा मन पर नियंत्रण किये बिना ब्रह्मचर्य का पालन नहीं हो सकता। इन्द्रियों में रसना, कर्मों में मोहनीय कर्म, व्रतों में ब्रह्मचर्य व्रत AS और गुप्तियों में मनोगुप्ति, यह चार बड़ी साधना और अभ्यास से वश में होते हैं।
अध्यात्म तत्त्व का उपदेश सुने बिना न अपनी आत्मा का बोध होता है और न श्रद्धा होती है। श्रद्धा के पश्चात् ही आत्मा के प्रति रुचि बढ़ती है तभी अब्रह्म रागभाव से छुटकारा होता है।
ब्रह्म अर्थात् अपनी शुद्ध बुद्ध आत्मा में चर्या अर्थात् शरीर आदि परद्रव्य का त्याग कर अपने ब्रह्म स्वरूप में लीन रहना ब्रह्मचर्य है।
संसार में स्त्री और धन का राग बड़ा प्रबल है। स्त्री के त्यागी भी धन के राग से नहीं बच पाते। इस धन की तृष्णा के चक्र में पड़कर मनुष्य धर्म कर्म भी भुला बैठता है। यह कंचन, कामिनी, कीर्ति का राग ही दुर्गति में ले जाता है।
७. अनुमोदना राग अन्मोय राग उत्तं, अन्यानं अन्मोय सल्य अन्मोयं। विषयं च अगुरुवयनं, आलापं अन्मोय निगोयवीयम्मि॥११४ ।।
अन्वयार्थ - (अन्मोय राग उत्तं) एक अनुमोदना का राग कहा गया है, संसारी जीवों की हाँ में हाँ मिलाना, पराश्रितपना, पराधीन रहना (अन्यानं अन्मोय) अज्ञान की अनुमोदना करना, आलम्बन, आश्रय रखना (सल्य अन्मोयं) शल्यों में लगे रहना (विषयं) विषयों में रत रहना (च) और (अगुरु वयन) अगुरुओं के
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