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________________ ****** श्री उपदेश शुद्ध सार जी करने की भावना किया करते हैं, उनको मोक्षमार्ग की कभी भावना नहीं होती है, वे संसार में ही भ्रमण करते हैं। संसार की तरफ दृष्टि होने से नाशवान पदार्थों में राग हो जाता है, राग से प्राप्त वस्तु में ममता और अप्राप्त की कामना उत्पन्न होती है, राग वाले प्रिय पदार्थों की प्राप्ति होने पर लोभ प्रवृद्ध होता है; परंतु उनकी प्राप्ति में बाधा पहुँचने पर, बाधा पहुँचाने वाले पर क्रोध होता है। यदि बाधा पहुँचाने वाला सबल हो तो भय होता है। इस प्रकार नाशवान पदार्थों, संयोगों में राग होने से भय, क्रोध, लोभ, ममता, कामना आदि सभी दोषों की उत्पत्ति होती है। इन सबका जो मूल है ऐसे राग के मिट जाने पर यह सभी दोष मिट जाते हैं। शरीरादि वस्तुएं जन्म से पहले भी हमारे साथ नहीं थी और मरने के बाद भी नहीं रहेंगी तथा इस समय भी उनका प्रतिक्षण हमसे संबंध विच्छेद हो रहा है। इन प्राप्त हुई वस्तुओं का सदुपयोग करने का ही अधिकार है, अपनी मानने का अधिकार नहीं है। इन्हें अपनी और अपने लिये मानना ही बंधन है । राग, भय, क्रोध आदि दोषों के कारण संसार का संबंध पुष्ट होता है अतएव इन दोषों को मिटाने के लिये संसार के साथ न तो राग करना है और न द्वेष ही करना है। पूर्व कर्म बंधोदय से स्वयं कुछ नहीं लेना है, उनके फल की आकांक्षा या स्पृहा भी नहीं करनी है यही जीवन का परम और चरम लक्ष्य है। ५. परिनाम राग परिनाम राग सहियं, परिनइ परिनवई मिच्छ अन्यानं । पर पज्जावं पिच्छदि, परिनाम राग नरय वासम्मि ।। ११२ ।। अन्वयार्थ (परिनाम राग सहियं ) राग सहित परिणाम उसे कहते हैं (परिनइ परिनवई मिच्छ अन्यानं ) जो आप मिथ्यात्व अज्ञान रूप परिणमे और दूसरों को भी मिथ्यात्व अज्ञान रूप परिणमावे ( पर पज्जावं पिच्छदि) जो पर पर्याय की ओर ही दृष्टि रखता है, पर को ही देखने जानने में लगा रहता है (परिनाम राग नरय वासम्मि) ऐसे राग परिणाम वाला जीव नरक में वास करता है। विशेषार्थ जनरंजन राग का पांचवां भेद परिणाम राग है, कर्तापने के भाव को परिणाम राग कहते हैं। संसार में जिसका परिणाम अत्यंत आसक्त है, वह आप भी धन पुत्र आदि लौकिक कार्यों की सिद्धि की कामना से मिथ्या देव गुरु - - வது முகவ गाथा ११२*-*-*-*-*-*-* धर्म को मानता है व अज्ञान से न करने योग्य कार्य करता है तथा दूसरों को भी ऐसा ही उपदेश देकर उन्हीं कार्यों में लगाता है। वह प्राप्त शरीर में अतिरागी रहता है। शरीर के संबंधी स्त्री पुत्रादि के साथ तीव्र मोह रखता है। बहु आरंभ परिग्रहवान रहता है, अन्याय के कार्यों से उसको ग्लानि नहीं होती है। दूसरों को ठग करके अनेक कष्ट देकर भी अपना मतलब निकालना चाहता है। तीव्र खोटी लेश्या से वह प्राणी नरक आयु बांधकर नरक चला जाता है। जो धर्म दूसरे के धर्म में बाधा पहुंचाये वह धर्म नहीं अधर्म है। वही धर्म सच्चा है जो मनुष्य का निर्माण करता है, उसका जीवन बनाता है। मनुष्य बुरे मार्ग पर आगे बढ़ता है तो उसे कुछ समय सुख भी मिलता है, जीत भी मिलती है, लेकिन अंत में सब समूल नष्ट हो जाता है। मनुष्य को जैसे बिन चाहे दु:ख आते हैं, वैसे ही बिन मांगे सुख भी आते हैं, सुख-दुःख भाग्याधीन हैं। अज्ञानी स्वयं के दुःख-सुख व अन्य के सुख-दुःख का कर्ता बनता है। मोह के सद्भाव में भय चिंता घबराहट शंका-कुशंका होती है। द्वेष के सद्भाव में कठोरता, क्रोध, तनाव बना रहता है। राग के सद्भाव में संकल्प-विकल्प और अशांति रहती है। अज्ञानी मिथ्यात्व सहित इन्हीं में फंसा नरक में चला जाता है। बुढ़ापा रूप का दुश्मन है, उत्कट आशा से धैर्य नष्ट होता है, मृत्यु प्राणों की ग्राहक है। निर्लज्ज को धर्म की चिंता नहीं रहती, क्रोध श्री हीन कर देता है। नीच की सेवा से शील नष्ट हो जाता है, कामुकता लज्जा की दुश्मन है और कर्तापन का अभिमान सभी गुणों को नष्ट कर देता है। जिसे अपने स्वरूप का अनुभव हो गया है, वही वास्तव में बुद्धिमान पुरुष है क्योंकि वह संपूर्ण कर्तव्य कर्म करते हुए भी उनसे बंधता नहीं है। भाव के अनुसार ही कर्म की संज्ञा होती है, भाव बदलने पर कर्म की संज्ञा भी बदल जाती है। कर्म बंधन से छूटने का उपाय समता ही है। पदार्थ और क्रिया रूप संसार से अपना सम्बंध मानने के कारण मनुष्य मात्र में पदार्थ पाने और कर्म करने का राग रहता है कि मुझे कुछ न कुछ मिलता रहे और मैं कुछ न कुछ करता रहूँ, इसी को पाने की कामना तथा करने का राग कहते हैं। इसमें फंसा अज्ञानी जीव संसार में परिभ्रमण करता है। फल की चाह, कर्म का फल भोगने की कामना, कर्ता, भोक्तापन का परिणाम संसार में डुबाने वाला है। पर और पर्याय की दृष्टि, उसको मान्यता 货到
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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