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गाथा- ११०,१११*
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* ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी * भोगता, भविष्य की चाह, तृष्णा, आशा में लगा रहता है।
दाम-दिन में बेकरार बेचैन रखता है। काम - रात में बेकरार बेचैन रखता है। नाम-दिन-रात बेकरार बेचैन रखता है।
अज्ञानी मिथ्यादृष्टि मन की तृप्ति चाहता है और वह कभी होती नहीं है इसलिये वह रात-दिन संकल्प-विकल्पों में कुढ़-कुढ़ कर मरता है और निगोद चला जाता है।
जब तक शरीर का राग रहेगा तब तक निराकुल, निर्भय, निश्चिन्त नहीं हो सकते । जब तक राग है, तब तक द्वेष भी रहेगा। यह राग-द्वेष ही कर्म बंध के कारण हैं, जो जीव को संसार में भ्रमाते हैं। भेदज्ञान और वीतराग होने पर ही शरीर राग से छूटा जा सकता है।
३.कुल राग कुल रागं च उवन्न, अकुलं सहकार न्यान विरयंमि। अन्यान विषय विध, अन्मोयं निगोय वासम्मि ॥ ११०॥
अन्वयार्थ - (कुल रागं च उवन्न) जनरंजन राग होने से कुल राग, पितापक्ष - मैं बड़े खानदान का हूँ, यह राग पैदा हो जाता है (अकुलं सहकार) नीच करतूति, कुल के विपरीत आचरण, नीच संगति से (न्यान विरयंमि) ज्ञान बिगड़ जाता है, ज्ञान से भ्रष्ट हो जाता है, बुद्धि नष्ट हो जाती है (अन्यान) अज्ञान से (विषय विध) विषयों की वृद्धि होती है (अन्मोयं) विषयों में लीन होने से (निगोय वासम्मि) निगोद में वास करना पड़ता है।
विशेषार्थ - जनरंजन राग का तीसरा भेद कुल राग है । पितापक्ष - खानदान का अहं होना कुल राग है। मैं बड़े श्रेष्ठ कुल का हूँ, मेरे पिता, दादा आदि ऐसे थे, इसका घमंड रखते हुए निंद्य आचरण करने से, नीच संगति से बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है, सब ज्ञान विला जाता है। अज्ञान से विषयों की वृद्धि होती है, व्यसनों में फंसने से निगोद में वास करना पड़ता है।
पितापक्ष, वंश,नाम आदि का अहं कुल राग होता है, अज्ञान जनित संसारी, 4शरीराश्रित दृष्टि होने से कुल राग विशेष रहता है, जिससे करने न करने योग्य * कार्य करता है। अपनी शक्ति, परिस्थिति न होने पर भी खानदान और नाम के लिये कर्ज आदि लेकर फिजूल खर्ची और निंद्य आचरण करता है। विवेकहीन होकर लोगों के कहने में लगकर ऐसे कार्य कर बैठता है जिसके लिये जीवन भर
पछताना पड़ता है।
नीच संगति से बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है, विषयों और व्यसनों में फंसकर दुर्गति भोगता है। इस उन्मत्त भाव युक्त अहंकार से पर की घृणा से अति नीच गोत्र कर्म बांधकर एकेन्द्रिय निगोद पर्याय में चला जाता है।
जब अंतरंग में ज्ञान और रागादि का भेद करने का तीव्र अभ्यास करने से भेदज्ञान प्रगट होता है, तब यह ज्ञात होता है कि ज्ञान का स्वभाव तो मात्र जानने का ही है। ज्ञान में जो रागादि की कलुषता आकुलता रूपसंकल्प-विकल्प भासित होते हैं वे सब पुद्गल विकार हैं,जड़ हैं। इस प्रकार ज्ञान और रागादि के भेद का अनुभव होने पर जनरंजन राग छूटता है तभी शरीर से दृष्टि हटने पर कुल राग छूटता है।
यश प्रतिष्ठादि की कामना, दम्भ, हिंसा,क्रोध,कुटिलता, द्रोह, अपवित्रता, अस्थिरता, इन्द्रियों की लोलुपता, राग, अहंकार, आसक्ति, ममता, विषमता, अश्रद्धा और कुसंग आदि दोष जीवन का पतन करने वाले हैं। इनके रहते हुए साधक को विशुद्ध तत्त्व का ज्ञान नहीं हो सकता।
४. सहकार राग सहकार राग जुत्तं, अन्यानं सल्य विषय सहकारं। अन्मोयं अन्यानं, सहकार संसार भावना हुंति ॥ १११ ॥
अन्वयार्थ-(सहकार राग जुत्तं) संगति का भी राग होता है, संयोग के राग में लगने से (अन्यानं सल्य विषय सहकारं) अज्ञान शल्य और विषयों में सहकार हो जाता है (अन्मोयं अन्यानं) अज्ञान में लगने, अज्ञान का आलंबन लेने, रत होने से (सहकार) उसी का सहयोग, सहकार, संगत करने से (संसार भावना हुंति) संसार की भावना होती है, जनरंजन राग बढ़ता है।
विशेषार्थ-जनरंजन राग का चौथा भेद सहकार राग, संगति का राग होना है। संगति संयोग से अज्ञान, शल्य, विषयों में सहकार हो जाता है। अज्ञान का आलंबन होने, सहकार करने से संसार की भावना होती है।
जनरंजन राग के कारण जीव कुसंगति में फंस जाते हैं। अज्ञान से मिथ्या देवादि को मानते हैं, मायाचार करते हैं, विषयों की वांछा से शल्यों में रत रहते हैं। लोगों की संगति में पड़कर उनके अज्ञानमयी कार्यों की अनुमोदना करते हैं, स्वयं भी उनमें फंस जाते हैं। ऐसे प्राणी रात-दिन उन्हीं संसार वर्द्धक कार्यों के
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