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________________ गाथा- १०९* ** * - -- - -E E * ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी * सुधरेंगे तथा मंद कषाय के परिणाम से धर्म होता है, इस प्रकार के अभिप्राय की * गंध भी अंतर में रह जाने का नाम मिथ्या वासना है, ऐसी वासना रखकर बाह्य में * पंच महाव्रत पालन तथा दया दानादि की चाहे जितनी क्रिया व मंद कषाय करे तो ॐ भी धर्म नहीं होता। जब निज आत्मा को शुद्ध स्वरूपी जाने, राग-द्वेषादि को दुःखरूप जाने व उन भावों से अपना घात समझे, तब कषाय भावों के अभाव से अपनी दया माने तथा अन्य को दु:ख हो ऐसे भाव न होने दे सो पर की दया है, इस प्रकार अहिंसा को धर्म जाने, हिंसा को अधर्म माने व ऐसा श्रद्धान होना ही सम्यक्त्व है। जो अंतर शुद्ध स्वभाव पर दृष्टि पड़ी है वह न तो भव को बिगड़ने देती है और न भव को बढ़ने देती है। अपने विमल स्वभाव धर्म का यथार्थ निर्णय होने से राग भाव गल जाता है। बाहरी आलंबन को या निमित्त को उपादान मानना मिथ्यात्व है, करोड़ों जन्मों में यदि कोई व्यवहार चारित्र पाले तब भी वह मोक्ष के मार्ग पर नहीं है। शुद्धात्मानुभव के प्रताप से अनादि का मिथ्यादृष्टि जीव सम्यक्त्वी व संयमी होकर उसी भव से निर्वाण को प्राप्त कर सकता है। जो जीव संसार के व्यवहार से उदास होकर धर्म की विनय व धर्म के आचार से युक्त होकर आत्मज्ञान की भावना करता है, उसका पाक्षिक राग भाव विला जाता है। २.शरीर राग सरीर राग जुत्तं, सहकारं रितियंति अन्यान अन्मोयं। मिच्छात सल्य सहियं, अनुमोये निगोय वासम्मि ॥ १०९॥ अन्वयार्थ - (सरीर राग जुत्तं) शरीर सम्बंधी राग में युक्त होना (सहकार) सहयोग, सहकार, स्वीकार करना (रितियंति) विषयों की आसक्ति में लवलीन रहना (अन्यान) अज्ञान का (अन्मोयं) आलंबन, अनुमोदना, आश्रय करना (मिच्छात) मिथ्यात्व (सल्य सहियं) शल्य सहित रहना (अनुमोये) शरीर की लीनता, पकड़ (निगोय वासम्मि) निगोद में वास कराती है। विशेषार्थ-जनरंजन राग का दूसरा भेद शरीर का राग है। शरीर सम्बंधी राग में युक्त होने से, उसका सहयोग करने से विषयों की आसक्ति बढ़ती है। शरीर की तरफ देखना, शरीर को महत्त्व देना यही अज्ञान का आश्रय है, इससे मिथ्यात्व और शल्य सहित होकर शरीर में लीन रहना, उसकी पकड़ रहने से निगोद में वास करना पड़ता है। शरीर संबंधी राग उसे कहते हैं जो शरीर को ही देखता है, विषयों में उलझा रहता है। अज्ञान का आलंबन होने से मिथ्यात्व और शल्य सहित निरंतर पराधीन पराश्रित रहता है। स्त्री पुरुषों के शरीरों को ही देखता रहता है, अपने आत्म स्वरूप का बोध नहीं होता, शरीर में ही रंजायमान रहता है। शरीर स्वस्थ बना रहे व खूब विषय भोगों में सहकारी हो ऐसी रुचि से अन्याय, अभक्ष्य, अनीति का सेवन करता है। मिथ्यात्व शल्यों सहित निरंतर चिन्तित भयभीत रहता है, मायाचारी करता है, इससे निगोद में वास करना पड़ता है। शरीर पुद्गल परमाणुओं का पिंड, अशुचि, मल, मूत्र, मांस, हड्डी का ढांचा है, गलने जलने वाला है, क्षणभंगुर नाशवान है । अज्ञानी जीव मिथ्यात्व सहित उसमें एकत्व मानता है, विषयादि में लिप्त रहता है। शरीर से भिन्न मैं चेतन तत्त्व आत्मा हूँ इसका बोध ही नहीं होता। शरीरों के रूप लावण्य को ही देखा करता है, शरीर में ही रत रहता है। ___अंतर शल्य विकल्प पर्यायाश्रित अज्ञान दशा में होते हैं। बाह्य शल्य विकल्प कर्म संयोग उदयानुसार होते हैं। बाह्य शल्य विकल्प छूटने पर निश्चिन्तता होती है। अंतर शल्य विकल्प मिटने पर निर्द्वदता होती है। जिसे अपने हित-अहित और भविष्य का ध्यान नहीं होता, वह महामूर्ख अज्ञानी है। किसी भी विषय की आसक्ति होने तक मन सक्रिय और चंचल रहता है। पांचों इन्द्रियों के विषयों का पूर्ण संयम होने पर ही मन का संयम होता है। भावों में और क्रिया में यह क्या हो रहा है ? ऐसा होना था, ऐसा न हो जाये? यह शल्य विकल्प अज्ञानी जीव को होते हैं उनमें यह अच्छा है, यह बुरा है, यह हितकारी है यह अहितकारी है। यह शुभ-अशुभ, पाप-पुण्य है, ऐसा भेद विकल्प करना ही तद्रुप कर्मबंध का कारण है। शरीर दृष्टि होने से माया की विशेषता रहती है. कंचन, कामिनी, कीर्ति (दाम, काम, नाम) में ही रत रहता है, इसी से घर, परिवार, समाज, व्यापार का संयोग सम्बंध रहता है, जो पापों में लगाकर निगोद का पात्र बनाती है। अज्ञानी प्राप्त शुभयोग का सदुपयोग नहीं करता, पुण्य का फल नहीं Here 1-3---E2EE ८९
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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