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________________ -*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी धर्म-अधर्म का विवेक न रखते हुए लोक मूढ़ता में फंसे रहते हैं। जो पूर्वज करते आ रहे हैं वे उसे छोड़ते नहीं हैं, यदि कुल में कोई कुदेवादि की भक्ति, पूजा चली आ रही है तो उसे त्यागते नहीं हैं, ऐसी संसारासक्ति का राग अपने विमल स्वभाव के भान, सम्यक्ज्ञान के प्रकाश से दूर हो जाता है। जगत में यह मूढ़ लोगों की मान्यता होती है कि अमुक कार्य, अमुक देवी-देवता की भक्ति करने से सिद्ध हो जाता है, जनरंजन राग वाला इन्हीं बातों में फंसा रहता है, इन्हीं बातों को कहता है। मरण से भयभीत होकर बहुत सी मूढ़ मान्यतायें किया करता है। धनादि पुत्र परिवार की कामना वासना से विवेक शून्य होकर संसार में परिभ्रमण करता है। भेदविज्ञान पूर्वक सम्यक्ज्ञान का प्रकाश होने पर इन मिथ्या कल्पनाओं, मूढ़ मान्यताओं का अंत होता है तभी यह राग भाव विलाता है । जो जीव जगत के चेतन-अचेतन पर पदार्थों में अपनत्व की बुद्धि रखता है, पर पदार्थों को अपना मानता है वह मोह मिथ्यात्व के बंधन में बंधता है। स्वर्ग लोक में इच्छानुसार भोगों को निरंतर भोग कर भी जो कोई निश्चय से तृप्त नहीं हुआ, वह वर्तमान तुच्छ भोगों में किस तरह तृप्ति कर सकता है ? रागी जीव निरंतर नये-नये विकल्प-संकल्प राग भाव करता रहता है, इसी से दुःखी होता जन्म-मरण करता है। मिथ्या व नाशवंत इस संसार और शरीर के सम्बंध में मिथ्यादृष्टि अनंतानंत भाव किया करता है। इस संसार शरीरादि को ही सत्य जानता है, इससे संसार परिभ्रमण करता है। अविरत सम्यदृष्टि के भीतर शुद्ध आत्म तत्त्व का प्रकाश अनुभव हो जाता है, उसके अंतरंग में शुद्धात्मा झलक जाता है, वह निज शुद्ध स्वभाव को अशुद्ध भावों से भिन्न जानकर सर्व ही अशुद्ध (शुभाशुभ) भावों का त्यागी हो जाता है। जो यह मानता है कि मैं परजीवों को सुखी दुःखी करता हूँ वह मूढ़ है, अज्ञानी है। ज्ञानी इससे विपरीत मानता है अर्थात् ज्ञानी जानता है कि लौकिक सुख-दुःख तो जीवों को अपने पुण्य-पाप के अनुसार होते हैं वे तो उनके स्वयं के कर्मों के फल हैं, उनमें किसी दूसरे जीव का रंचमात्र भी कर्तृत्व नहीं है । जो जीव भयंकर संसार रूपी समुद्र से पार होना चाहते हैं वे जीव कर्मरूपी ईंधन को जलाने वाले अपने शुद्धात्मा का ध्यान करते हैं क्योंकि शुद्धात्मा के ध्यानरूपी अग्नि ही कर्मरूपी ईंधन को जलाने में समर्थ होती है अतः मुमुक्षु का - ८८ गाथा १०८*-*-*-*-*-* एक मात्र परम कर्तव्य निज शुद्धात्मा का ध्यान ही है, इसी से सब राग भाव विलाता है। प्रश्न- यह जनरंजन राग क्या है, इसका स्वरूप बताइये ? समाधान पर जीवों की तरफ देखना ही जनरंजन राग है, उनसे अपेक्षा, चाह, लगाव, संबंध, स्वार्थ होना, संसार का अस्तित्व, सत्ता मानना यह सब जनरंजन राग है, जो जीव को भ्रमित भयभीत रखता है। इस राग भाव से ही अनंतानंत कर्मों का बंध होता है, इसके कई भेद हैं। प्रश्न- इस राग भाव के कुछ भेद बताइये ? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं१. पाक्षिक राग - पाचिक राग स उ संसारे पछि राग सभावं । 9 संसार विधि सहियं, दंसन विमलं च राग गलियं च ॥ १०८ ॥ अन्वयार्थ - (पाषिक राग स उत्तं) पाक्षिक राग उसे कहते हैं (संसारे पषि राग सभावं) जो संसार के पक्ष का रागभाव रखते हैं अर्थात् व्यवहार पक्ष क्रियाकांड पुण्य-प -पाप को ही धर्म मानते हैं (संसार विधि सहियं) वे संसार को बढ़ाते हैं (दंसन विमलं च राग गलियं च) विमल सम्यक्दर्शन होने से यह राग भाव गल जाता है। विशेषार्थ जनरंजन राग का पहला भेद पाक्षिक राग है। पक्ष, सम्प्रदाय एकांत हठ मनमानी को पाक्षिक राग कहते हैं, जो संसार का पक्ष, व्यवहारिक क्रियाकांड पुण्य-पाप को ही धर्म मानते हैं, जिससे संसार को ही बढ़ाते हैं । भेदज्ञान पूर्वक विमल सम्यक्दर्शन होने से यह रागभाव विला जाता है। अज्ञानी एकांतवाद साम्प्रदायिकता को पकड़कर रखता है, वह बाह्य क्रियाकांड, पूजा पाठ आदि को ही धर्म मानता है। अपने पक्ष का इतना कठोर हठग्राही होता है कि आपस में बैर-विरोध, राग-द्वेष बढ़ाता रहता है। धर्म के नाम पर लड़ाई झगड़े करवाता है। अपने पक्ष के समर्थन में नाना प्रकार की कुटिलता, मनमानी, मायाचारी करता है इससे संसार परिभ्रमण बढ़ता है, अनंत कर्मों का बंध होता है। - जो प्ररूपणा में वीतराग की परंपरा को तोड़ते हैं और विरोध की पुष्टि करते हैं, वे मिथ्यात्व की परंपरा ही प्रसारित करते हैं। बाह्य क्रिया सुधरने से मेरे परिणाम 器
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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