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गाथा- १०६,१०७***
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* ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी
जनरंजन राग ही संसार समाज से जोड़कर बांधकर रखता है, इस राग * भाव से लोगों के कहे अनुसार लोक मूढता में लिप्त रहता है, यही दुनियांदारी में फंसाता है। ज्ञान स्वभाव से जनरंजन राग भाव विला जाता है।
भेदज्ञान पूर्वक अपने विमल स्वभाव, ज्ञानभाव में रहने से जनरंजन राग छूट जाता है। ज्ञान और राग के बीच भेदज्ञान होने का यह लक्षण है कि ज्ञान में राग के प्रति तीव्र अनादर भाव जागता है। आत्मा में राग की गंध भी नहीं है। राग के जितने विकल्प उठते हैं उनमें आत्मा जलता है, विकल्प ही दुःख है इसी से कर्म बंध होता है, ऐसा ज्ञान में निर्णय होने पर रागभाव विला जाता है।
राग और ज्ञान को लक्षण भेद से सर्वथा भिन्न करने पर ही सर्वज्ञ स्वभावी शुद्ध जीव लक्ष्य में आता है। जो संपूर्ण वीतरागी होते हैं वे ही सर्वज्ञ परमात्मा होते हैं। जो सर्व प्रकार के रागादि से अपने विमल स्वभाव को भिन्न जानते हैं, ज्ञान स्वभाव में रहते हैं, उनका राग भाव विला जाता है। जैसे- पाप भाव शुद्धात्मा की स्वानुभूति से बाहर है उसी भांति पुण्य भाव, जनरंजन रागादि भाव बाहर रहते हैं, स्वानुभूति में इनका प्रवेश नहीं है। पुण्य-पाप रागादि भाव रहित निज शुद्धात्मा विमल स्वभाव की अंतर में दृष्टि होने पर स्वानुभूति प्रगट होती है और यही सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान है। सम्यक्ज्ञान होने पर ही रागादि भाव विलाते हैं।
शुद्ध स्वरूप आत्मा में मानों विकार अंदर प्रविष्ट हो गये हों ऐसा दिखाई देता है परंतु भेदज्ञान होने पर वे ज्ञानरूपी चैतन्य दर्पण में प्रतिबिम्ब रूप हैं। ज्ञान वैराग्य की अचिन्त्य शक्ति से पुरुषार्थ प्रगट होने पर अनेक प्रकार के कर्म के उदय, सत्ता, अनुभाग तथा कर्म निमित्तक विकल्प आदि विला जाते हैं।
जनरंजन राग से ज्ञान पर आवरण बना रहता है, इस राग भाव के आधीन जीव लोगों को प्रसन्न करने के लिये बहुत सी क्रियायें लोक मूढता वश करते हैं, उनके मन में भ्रांति रहती है कि कोई हमें बुरा न कहे । इस तरह की मान्यता मानने से ऐसा होता है, ऐसी मान्यता न मानने से यह अहित हो जाता है, ऐसे भ्रम
से भयभीत रहता है। अज्ञानी जीव झूठे सच्चे दृष्टांत बताकर लोगों को लोक * मूढता की तरफ प्रेरित करते हैं। जनरंजन राग, संसारी दृष्टि वाला जीव, भ्रम से *कुछ का कुछ विश्वास करके लोक मूढ़ता में फंसा रहता है । सम्यक्ज्ञान का *प्रकाश होने पर ही यह जनरंजन राग लोक मूढ़ता आदि छूटती है।
दुनियां में मेरा नाम प्रसिद्ध होवे, दुनियां मेरी प्रशंसा करे और जो मैं कहता हूँ उससे दुनियां खुश होवे, ऐसा जिसके अंदर अभिमान का प्रयोजन वर्तता है
यही जनरंजन राग है। इससे उसका धारणा रूप ज्ञान भले सच्चा हो तो भी वह अज्ञान है, मिथ्याज्ञान है । अंतर स्वभाव की दृष्टि करने, उसका लक्ष्य रखने, उसका आश्रय करने, अपने विमल स्वभाव में रहने से ही अतीन्द्रिय आनन्द और शांति प्राप्त होती है।
इसी बात को और आगे गाथा में कहते हैं - रागं उवन्न भावं, रागं संसार सरनि सभावं । पर्जाव दिहि दिट्ठ, विमल सहावेन राग संषिपनं ॥ १०६ ॥ जन उत्तं उत्त दिई, जामन मुंचनं च सरनि संसारे । मूढ़ लोय स सहावं, न्यान विन्यान राग विलयंति ॥ १०७ ॥
अन्वयार्थ - (रागं उवन्न भावं) राग से नाना प्रकार के भाव पैदा होते हैं (रागं संसार सरनि सभाव) राग से संसार का परिभ्रमण बढ़ता है, संसार का महत्व, मान्यता, आकर्षण रहता है (पर्जाव दिट्टि दि8) ऐसा रागी प्राणी पर्याय पर ही दृष्टि रखता है, पर्याय दृष्टि को ही देखता है (विमल सहावेन राग संषिपन) विमल स्वभाव से राग क्षय हो जाता है।
(जन उत्तं उत्त दि8) जनरंजन राग वाला जीव, लोगों के द्वारा कही बातों को ही कहते हुए देखा जाता है अर्थात् लोक मूढता को फैलाता है (जामन मुंचनं च सरनि संसारे) इससे संसार में परिभ्रमण, जन्म-मरण करता रहता है (मूढ लोय स सहावं) अज्ञानी मूढ लोगों का ऐसा ही स्वभाव होता है (न्यान विन्यान राग विलयंति) भेदविज्ञान होने से यह राग भाव विला जाता है।
विशेषार्थ-जनरंजन राग भाव से नाना प्रकार के भाव पैदा होते हैं। इससे संसार का ही महत्त्व, मान्यता, आकर्षण रहता है, हमेशा पर्याय दृष्टि से ही देखता है। यह जनरंजन राग विमल स्वभाव के लक्ष्य से विला जाता है।
जनरंजन राग वाला जीव, लोगों द्वारा कही बातों, झूठी मिथ्या कल्पनाओं को ही कहता है, लोक मूढता फैलाता है, इससे संसार के जन्म-मरण के चक्र में फंसा रहता है। अज्ञानी मूढ़ लोगों का ऐसा ही स्वभाव होता है, उन्हें हिताहित का ज्ञान नहीं होता। भेदविज्ञान होने से यह राग भाव विला जाता है।
जनरंजन राग भाव वाले प्राणी संसार बढ़ाने वाले भावों में ही रागी बने रहते हैं। वे रात-दिन धन संचय में, परिवार वृद्धि में, प्रतिष्ठा पाने में, यश कमाने में, लोगों को प्रसन्न करने में लगे रहते हैं, वे परिग्रह में अति आसक्त रहते हैं।
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-12-5-15-*
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