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गाथा- १०४,१०५***
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6--15-2-1-5-16
* ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी * चलता है, लाज भय गारव सहित हमेशा चिंतित परेशान रहता है, हित-अहित * का विवेक नहीं रहता, करने न करने योग्य कार्यों को राग भाव सहित करता है।
लोगों को प्रसन्न संतुष्ट रखना चाहता है, इससे भव भ्रमण का बीज बोता है अर्थात् * नाना प्रकार के कर्म का बंध करता है।
जनरंजन राग के कारण हमेशा शल्यें लगी रहती हैं, दुर्बुद्धि पैदा होती है, मिथ्यात्व भाव का सेवन करता है। लोगों के कहे अनुसार सबको खुश करने के लिये लोक मूढता, देव मूढ़ता, पाखंडी मूढ़ता में फंसा रहता है। जिनेन्द्र के मत के विपरीत कार्यों को करता है, ऐसा जिनद्रोही निगोद में वास करता है।
जनरंजन राग भाव वाला जीव हमेशा यही चाहता है कि मुझसे सब प्रसन्न रहें, कोई असंतुष्ट न हो, इस राग भाव से वह लोगों के अनुकूल वर्तता है। उसको यह लज्जा रहती है कि कोई मेरी निंदा बुराई न करे, मेरा अपमान न हो, इस बात का भय रहता है कि कोई बैर विरोध करके नाराज न हो जाये। अपना मद रहता है कि मेरे को कोई बुरा न कहे, सब मेरी प्रभावना, प्रशंसा करें। इस लाज भय गारव के कारण वह कभी धर्म के अनुकूल, कभी धर्म के विपरीत आचरण करता है, जिससे लोग प्रसन्न, संतुष्ट रहें। लोगों को राजी रखने के लिये वह अज्ञानी हित-अहित का विवेक नहीं रखता है। लोक मूढता में फंसकर अधर्म का सेवन कर अपना भव बिगाड़ लेता है और दुर्गतियों में चला जाता है।
जनरंजन रागभाव वाले जीव को हमेशा शल्यें लगी रहती हैं, वह मिथ्या, माया, निदान शल्य सहित हमेशा परेशान, चिंतित रहता है। दुर्बुद्धि पैदा होने से मिथ्यात्व भाव में लगा रहता है, लोगों के कहे अनुसार करने न करने योग्य कार्यों को करता है। जैनधर्म उत्तम कुल में पैदा होकर निंद्य कर्म कुदेवादि की मान्यता, पूजा, वंदना, भक्ति करता है, जिन मत के विपरीत श्रावक या साधु पद धारण कर मायाचारी करता है। लोगों को प्रसन्न करने, प्रतिष्ठा पाने के लिये कुदेवादि का पोषण करता है, गंडा, ताबीज, मंत्र-जंत्र से संसारी कार्यों की सिद्धि करना चाहता है, ऐसा जिनद्रोही धर्म को बदनाम कर स्वयं निगोद का पात्र बनता है।
जैनधर्म तो अध्यात्म रस मय वीतरागता का मार्ग है, कोई दया दान आदि मात्र जैनधर्म का स्वरूप नहीं है। पराधीनता, परावलंबता का इसमें काम ही नहीं * है, परदृष्टि, पर्याय दृष्टि ही मिथ्यादृष्टि है। ज्ञायक पिंड आनन्द स्वरूप आत्मा का भान कर अंतर्लीन होना सो जैन धर्म है।
जो मान बड़ाई के लिये अपने ज्ञान का मद करते हैं, धार्मिक आचरण कर
अपने आपको श्रेष्ठ बड़ा मानते हैं, कोई रूप भेष बनाकर अपने को पुजवाते हैं। अपनी बड़ाई का भाव रखते हैं, दूसरों को बतलाने का अभिप्राय रखते हैं, वे सभी केवल पाप बंधकर भव भ्रमण बढ़ाते हैं। विपरीत मान्यता व राग द्वेषादि ही एक मात्र बंध का कारण है।
यदि साधक का यह दृढ़ निश्चय हो जाये कि मुझे एक परमात्म प्राप्ति के सिवाय कुछ नहीं चाहिये तो वह वर्तमान में ही मुक्त हो सकता है परंतु यदि वस्तुओं के सुख भोग और जीने की इच्छा रहेगी तो इच्छा कभी पूरी नहीं होगी, इससे हमेशा शल्य विकल्पों में ही रहना पड़ेगा और मृत्यु के भय से भी बचाव नहीं होगा तथा क्रोध से भी छुटकारा नहीं होगा। इससे संसार भव भ्रमण ही करना पड़ेगा।
प्रश्न-इस जनरंजन राग भाव से छूटने का उपाय क्या है? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैंरागं च भाव उत्तं, न्यानं आवरन रंजनं लोयं । प्रपंच विभ्रम सहिय, विमल सहावेन राग मुक्कं च ॥ १०४ ॥ रागं संसार सहावं, जन उत्तं लोक मूढ सुपएसं । जन रंजन लोक सहावं, न्यान सहावेन राग विलयति ॥ १०५॥
अन्वयार्थ-(रागं च भाव उत्तं) जनरंजन रागभाव इस प्रकार का होता है जिससे (न्यानं आवरन) ज्ञान पर आवरण बना रहता है (रंजनं लोयं) लोगों को रंजायमान करने का ही भाव रहता है इससे (प्रपंच विभ्रम सहियं) प्रपंच और विभ्रम, भ्रांति सहित परिणाम होते हैं (विमल सहावेन राग मुक्कं च) विमल स्वभाव, आत्मज्ञान के प्रकाश से यह राग भाव छूटता है।
(रागं संसार सहाव) यह राग भाव संसार स्वभाव में लीन रखता है, जिससे (जन उत्तं लोक मूढ सुपएस) लोगों के कहे अनुसार लोक मूढता में लिप्त रहता है (जन रंजन लोक सहाव) यह जनरंजन ही संसार का स्वरूप है, यही दुनियादारी में फंसाता है (न्यान सहावेन राग विलयंति) ज्ञान स्वभाव से राग विला जाता है।
विशेषार्थ - जनरंजन राग भाव इस प्रकार का होता है, जिससे ज्ञान पर आवरण बना रहता है, लोगों को रंजायमान करने का ही भाव रहता है इससे प्रपंच और विभ्रम सहित परिणाम होते हैं। विमल स्वभाव आत्मज्ञान के प्रकाश से यह राग भाव छूटता है।
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