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गाथा- १०२,१०३
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* ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी * हित-अहित का विचार भी भूल जाता है।
स्त्री राग के राग में युक्त होने से स्त्री पुरुष में मलिन भाव मल सहित हो * जाता है, ऐसा अज्ञानी मूढ हो जाता है कि कुछ भी विवेक नहीं रहता और इन्हीं
भावों में हमेशा बहता रहता है, विषयांध होने से संशय सहित नरक में वास करता है।
काम भाव जीव का सबसे बड़ा शत्रु है, यह राग भाव होता है इसी के कारण जीव अनादि से संसार में परिभ्रमण कर रहा है। स्त्री पुरुष की ओर देखने से कामभाव पैदा होता है। कामभाव के पैदा होने से बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है, विवेक शून्य प्राणी विषयांध होकर न करने योग्य कार्य भी कर बैठता है, इस कामभाव से पीड़ित प्राणी दिन-रात आर्त-रौद्र भावों में लगा रहता है जिससे नरक गति चला जाता है।
जिसके मन को स्त्री (कामभाव) ने अपहरण कर लिया उसकी विद्या व्यर्थ है। उसे तपस्या त्याग और शास्त्राभ्यास से भी कोई लाभ नहीं, उसका एकांत सेवन और मौन भी निष्फल है।
जो धीर व्यक्ति-१. वाणी के वेग को, २. मन के वेग को, ३. क्रोध के वेग को, ४. जिव्हा के वेग को, ५. उदर के वेग को, ६. जननेन्द्रिय (कामभाव) के वेग को सहन करने में समर्थ हो जाता है इन पर संयम कर लेता है, अपने ज्ञान भाव से विचलित नहीं होता वह समस्त पृथ्वी पर शासन कर सकता है।
ब्रह्मचर्य का सामान्य अर्थकाम संयम है,जब तक सभी इन्द्रियों का संतुलित एवं संतोष जनक संयम न हो, तब तक काम संयम नहीं रखा जा सकता क्योंकि सभी इन्द्रियाँ अन्योयाश्रित हैं। मन से विकृत मनुष्य ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर सकता क्योंकि वासनाओं, विकारों का मन में उदय होने पर काम संयम अत्यंत कठिन हो जाता है, जो ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहते हैं वह - १. वह अपने भोजन पर नियंत्रण रखें।२. सज्जन पुरुषों के पास बैठे, सत्संग करें। ३. अश्लील
साहित्य कभी न पढ़ें। ४. सिनेमा आदि न देखें, स्त्री पुरुषों के विशेष संपर्क में * न रहें।
हाथ का सच्चा, लंगोट का पक्का और मुख का संयमी जग जीतता है।
घोर तपस्या पूजा पाठ जप ध्यान आदि करने वाले किंतु चारित्र हीन लोगों की क्या गति होती है, इसके अनेक दृष्टांत धर्म ग्रन्थों में मिलते हैं।
कामभाव से संमोह, संमोह से स्मरण शक्ति का हास और उससे बुद्धि नाश ************
और बुद्धि नाश के बाद सर्व नाश हो जाता है।
जगत के स्त्री पुरुषों को कामभाव से देखने वाला दुर्गति नरक जाता है। जो बुरे विचारों को न छोड़कर उनका रस लेता रहता है, वह कभी बुरे कर्मों से छुटकारा नहीं पा सकता, वह विचारों के समय असावधान रहता है, विचार के रस का अनुभव करता हुआ वह कभी उस व्यसन से आत्मत्राण नहीं कर पाता।
दुश्चरित्र से विरत न होने वाला, मन और इन्द्रियों को संयम में न रखने वाला, चित्त की स्थिरता का अभ्यास न करने वाला एवं विक्षिप्त मन वाला मनुष्य केवल बुद्धिबल से आत्मा को प्राप्त नहीं कर सकता।
संसार का मूल कारण कामभाव है, स्त्री पुरुष का संयोग सम्बंध ही जगत की सृष्टि करता है। पुरुष स्त्री में और स्त्री पुरुष में आसक्त होकर कामभाव में मूढता सहित वर्तन करके इस अज्ञान व मूढ़ता से तीव्र राग के कारण घोर पाप करके नरक चले जाते हैं।
प्रश्न-इस जनरंजन राग से और क्या होता है?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - जनरंजन सादिड्डी, जन उत्तं राग सहिय अन्यानी। लाज भय गारव सहियं, राग संजुत्त भ्रमन वीयम्मि ॥१०२॥ रागं च सहिय सल्यं, दुवुहि उवर्वन मिच्छ परिनाम । जनरंजन जन उत्तं, जिनद्रोही निगोय वासम्मि ॥१०३॥
अन्वयार्थ-(जनरंजन सादिट्टी) जिसकी दृष्टि लोगों को रंजायमान करने की रहती है (जन उत्तं राग सहिय अन्यानी) लोगों के कहने के अनुसार चलने वाला, राग सहित, राग को रखता हुआ अज्ञानी होता है वह (लाज भय गारव सहियं) लाज भय गारव सहित होता है (राग संजुत्त भ्रमन वीयम्मि) ऐसे राग में लगा हुआ जीव भवभ्रमण का बीज बोता है।
(रागं च सहिय सल्यं) राग भाव सहित शल्य को रखता हुआ (दुवुहि उववंन) दुर्बुद्धि पैदा होने से (मिच्छ परिनाम) मिथ्यात्व भाव सहित वर्तता है (जनरंजन जन उत्त) लोगों के कहे अनुसार जगत के जीवों को रंजायमान प्रसन्न संतष्ट करने में लगा रहता है (जिनद्रोही) वह जिनमत का शत्रु, जिनमत के विरुद्ध चलने वाला (निगोय वासम्मि) निगोद में वास करता है। विशेषार्थ - जनरंजन राग में लगा अज्ञानी जीव लोगों के कहे अनुसार
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