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****** श्री उपदेश शुद्ध सार जी
पौद्गलिक जगत और नाशवान पर्याय के भ्रम भ्रांति में भ्रमित रहता है इससे यहाँ भी दुर्गति सहता है, हमेशा आकुल-व्याकुल चिंतित बना रहता है और भविष्य में भी दुर्गति जाता है।
राग भाव होने से संसार की तीव्र वासना होती है, शरीराशक्ति विषय भोगों की कामना रसबुद्धि रहती है, जिससे उसका चित्त स्थिर नहीं रहता, बुद्धि शंकित और भ्रमित रहती है। कषायों के वशीभूत हो आरंभ-परिग्रह में लगा रहता है, न्याय-अन्याय का विवेक नहीं रहता, संशय सहित अज्ञान होने से चारों गति में भ्रमण करता है।
लोगों की देखादेखी आप भी उन मूढ़ता युक्त रूढ़िवादी क्रियाओं को बड़े ही रागभाव से करता है, जिससे लोग प्रसन्न हों व इसे बड़ा आदमी धर्मात्मा समझें। जिन बातों में, कार्यों में पाप बंध होता है, उन बातों से भला होना मानता है। हमेशा भ्रमित, भयभीत रहता है, संसारी कार्यों व्यवहार को महत्व देता है । अपने ज्ञान स्वभावी आत्मा की शुद्ध परिणति को न पहिचान कर यद्वा तद्वा आचरण करके दुर्गति में चला जाता है।
पर से चाह लगाव ही बंधन अशांति चिंता का कारण है, इसी से वर्तमान में दुर्गति भोगना पड़ती है और आगे नरक तिर्यंच गति जाना पड़ता है।
राग से अशुद्ध दृष्टि होने के कारण घर परिवार की तरफ देखने से मोह माया के भाव चलते हैं। शरीर की तरफ देखने से विषय पापादि के भाव होते हैं। धन वैभव की ओर देखने से लोभ तृष्णा परिग्रह करने धरने के भाव होते हैं। समाज की तरफ देखने से राग-द्वेष के भाव होते हैं। अपने आत्म स्वरूप की ओर देखने से सुख शांति आनन्द के भाव होते हैं।
मन के लिये, इन्द्रियों के विषय भोग और माया की चाह सक्रिय सबल बनाती है, जिससे मनुष्य हमेशा भ्रमित भयभीत रहता है।
पर का विचार, पर की चिंता, मन के संकल्प यह सब आकुलता, अशांति और दुःख के कारण हैं।
भेदज्ञान के अभाव में ही भय, चिंता, घबराहट, संकल्प-विकल्प, आकुलता - व्याकुलता होती है।
ज्ञान में संशय विभ्रम राग भाव के कारण होता है, जिससे वस्तु स्वरूप का यथार्थ निर्णय स्वीकार नहीं होता, इसी से दुर्गति सहना पड़ती है और चतुर्गति में कलना पड़ता है।
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गाथा १००, १०१*******
विपरीत मान्यता में हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह यह पांचों ही पाप समाहित हैं। मैं अनादि अनंत ज्ञानवान हूँ, इसमें से प्रवर्तित ज्ञान पर्याय की सामर्थ्य को जो नहीं मानता तथा मैं पर को जानता हूँ, ऐसा मानता है वह ज्ञान के ऊपर आवरण डालता है।
धर्म अर्थात् वस्तु स्वभाव, निज चैतन्य स्वरूप अनादि अनंत है। जीव (चेतन) द्रव्य की पर्याय उसी के अस्तित्व में है, ऐसा मानने पर यह तय होता है कि राग स्वयं के कारण से है, अपनी ही निर्बलता से होता है तभी राग दूर होने की संभावना होती है तथा ज्ञानमयी आत्मा स्वयं ही है तो ज्ञान स्वभाव की ओर ढलने का पुरुषार्थ होता है।
अज्ञानी को न तो अपने ज्ञान की खबर है और न ही निर्बलता से होने वाले राग की अतः संसार में जन्म-मरण करता है।
राग की विशेषतायें बताने हेतु आगे गाथा कहते हैं - रागं च भाव जुलं, पर पजव पुरुषस्य स्त्री संदिस्टं । न्यान विन्यान विमुक्तं, न्यान आवरन सु सहिय मूढं च ॥ १०० ॥ रागं च राग जुत्, स्त्री पर्जाव पुरुष मल सहियं । अन्यान न्यान मूढा, संसय सहिय नरब वासम्मि ।। १०१ ।।
अन्वयार्थ - (रागं च भाव जुत्तं) राग के भाव से जुड़ने, लीन होने से (पर पर्जाव) पर पर्याय (पुरुषस्य स्त्री संदिस्टं) पुरुषों को, स्त्रियों को देखता है (न्यान विन्यान विमुक्तं ) भेदविज्ञान से रहित होता है (न्यान आवरन) उसका ज्ञान ढका होता है अर्थात् विवेकहीन होता है (सु सहिय मूढं च) वह मूढता सहित वर्तता है।
(रागं च राग जुत्तं) राग के राग में लीन होकर (स्त्री पर्जाव) स्त्री पर्याय में (पुरुष मल सहियं) पुरुष के मलीन भाव सहित होता है (अन्यान न्यान मूढा ) ऐसे अज्ञानी प्राणी ज्ञान से मूढ़ होते हुए अर्थात् विषयांध अज्ञानी मूढ़ होते हैं (संसय सहिय) संशय सहित, भ्रम भाव के कारण (नरय वासम्मि) नरक में वास करते हैं।
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और
विशेषार्थ राग के तेरह भेद होते हैं ४ माया, ४ लोभ, हास्य, रति, स्त्री, पुरुष, नपुंसक वेद। इस राग भाव में जुड़ने से अज्ञानी जीव पर पर्याय स्त्री पुरुषों को ही देखता है, काम भाव के विकार से सब विवेक भूल जाता है, बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है, मूढ़ता सहित इतना कामासक्त होता है कि सब भेदज्ञान
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