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गाथा - ९८,९९***
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*********** श्री उपदेश शुद्ध सार जी * राग के उदय में राग सहित होकर जनरंजन राग और विकथाओं में लगे रहना, * व्रती श्रावक साधु होकर सामाजिक प्रपंच और लोकमूढ़ता में लगने वाले जिन धर्म * के द्रोही हैं, वह ऐसे राग भाव से दुर्गति में जाते हैं, ऐसा जिनेन्द्र परमात्मा ने * कहा है।
जो भेदविज्ञान से रहित हैं, अपने ज्ञान स्वभाव को नहीं जानते वह राग भाव से पर पर्याय को ही देखते हैं और इस जनरंजन राग से नरक में वास करना पड़ता है। राग के सद्भाव में रागी जीव मुनिव्रत, श्रावकव्रत पालते हैं और भीतर मिथ्यात्व कुज्ञान भाव होता है, जिससे शुद्धोपयोग की बिल्कुल पहिचान नहीं होती, ज्ञान भी ठीक नहीं होता जिससे क्रियायें भी ठीक-ठीक नहीं पालते हैं। जरा सी प्रतिकूलता, अविनय, अपमान होने पर क्रोधित हो जाते हैं, अपशब्द कहते हैं, आचरण पालने की शक्ति न होने पर भी ऊपर से व्रतीपने का दृश्य दिखाते हैं, भीतर से कुछ का कुछ आचरण करते हैं, इन्द्रियों के विजयी नहीं होते, जिव्हा लम्पटी होते हैं, राग भाव में लिप्त रहते हैं, ऐसे संसारासक्त साधु व्रती श्रावक भी तीव्र कषाय राग भाव से अशुभ कर्म बांधकर दुर्गति में जाते हैं।
राग सहित रागी जीव जनरंजन राग, लोगों को प्रसन्न करने के लिये राज कथा, चोर कथा, स्त्री कथा, भोजन कथायें करते हैं। पुण्य को धर्म बताते हैं वे जिनधर्म के द्रोही हैं, ऐसा जिनेन्द्र परमात्मा ने कहा है। ऐसे रागवर्द्धक लोग स्वयं भी जिनधर्म, वीतराग मार्ग नहीं पालते हैं व दूसरों को भी नहीं पालने देते हैं, ऐसे साधु व्रती वास्तव में जिनद्रोही हैं, जो ऐसे कुत्सित राग से तीव्र कर्म बांधकर दुर्गति में जाते हैं।
राग में आसक्त बहिरात्मा मिथ्यादृष्टि को आत्मा-अनात्मा का भेदविज्ञान नहीं होता, वह अपने ज्ञान स्वभाव से रहित रहता है, जिस शरीर में रहता है उसी रूप अपने को मानकर उसी पर्याय में रत रहता है और उसी के अनुकूल राग भाव में फंसा रहता है। उसको इस बात का भान ही नहीं रहता है कि मैं सिद्ध के समान
ज्ञान स्वभाव का धारी भगवान आत्मा हूँ; इसलिये उसमें तीव्र रागभाव होता है, * नाना प्रकार विषय भोग करता है, स्त्री-पुत्रादि के मोह में इतना पागल होता है कि
हित-अहित का कोई विवेक नहीं रहता है, पर पर्याय की दृष्टि होने से मिथ्यात्व * का सेवन करता है, आर्त-रौद्र परिणामों से नरक आयु बांधकर नरक चला जाता * है। यह अज्ञान सहित राग भाव महान दु:ख और दुर्गति कराने वाला है और संसार *परिभ्रमण का मूल कारण भी यही रागभाव है।
जीव, कर्म से दु:खी नहीं है बल्कि अपने राग-द्वेष, मोह के कारण से दुःखी होता है, उस दु:ख का नाश करने का एक मात्र उपाय भेदविज्ञान और वीतराग भाव है । जो जीव वीतराग की परम्परा को तोड़ते हैं और इसके विरुद्ध पुण्य-पापादि की पुष्टि करते हैं वे मिथ्यात्व की परंपरा ही प्रसारित करते हैं। असत् आचरण रूप महा विपरीत कार्य तो कषाय (क्रोध मान माया लोभ) की अत्यंत तीव्रता होने पर ही होता है, इस राग के कारण ही नरकादि दुर्गतियों में जाना पड़ता है।
इस राग से ही अशुद्ध दृष्टि और ज्ञान पर आवरण होता है, इस बात को आगे गाथा में कहते हैंरागं असुद्ध दिट्ठी, संसय सहकार अंतरं न्यानं । संक सहाव न विरयं, न्यानं आवरन चल गए भमनं ॥ ९८॥ रागं च लोक मूह, जनरंजन पर्जाव दिढि संदर्स । न्यान सहाव न पिच्छं, विभ्रम संजुत्त दुग्गए सहियं ।। ९९॥
अन्वयार्थ - (रागं असुद्ध दिट्टी) संसार का राग अशुद्ध दृष्टि है (संसय सहकार अंतरं न्यानं) इस राग से अंतरंग ज्ञान में संशय रहता है (संक सहाव न विरयं) इस शंका शील स्वभाव को न छोड़ने से (न्यानं आवरन) ज्ञान पर आवरण पड़ा रहता है (चउ गए भमन) जिससे चारों गति में भ्रमण होता है।
(रागं च लोक मूढं) इस राग से ही लोक मूढ़ता में फंसता है (जनरंजन पर्जाव दिट्टि संदर्स)जनरंजनरागसे ही पर्याय दृष्टि को देखता है अर्थात् जनरंजन राग के कारण ही उसकी पर्याय पर दृष्टि रहती है (न्यान सहाव न पिच्छं) ज्ञान स्वभाव को नहीं पहिचानता, अपने आत्म स्वभाव को नहीं देखता जानता (विभ्रम संजुत्त) विभ्रम में लीन रहता है (दुग्गए सहियं) इससे दुर्गति के दुःख सहता है,दुर्गति चला जाता है।
विशेषार्थ- राग से दृष्टि अशुद्ध और ज्ञान पर आवरण पड़ा रहता है, रागी जीव के अंतरंग ज्ञान में संशय होता है। नि:शंकता न होने से श्रद्धान में अशुद्धि और ज्ञान में संशय रहता है, वह वस्तु स्वरूप का यथार्थ निर्णय स्वीकार नहीं * करता इसलिये चारों गतियों में भ्रमण करता है।
इस राग के कारण ही लोक मूढता में फंसता है, जनरंजन राग में लगा रहता है, हमेशा पर्याय दृष्टि रहती है। अपने ज्ञान स्वभाव आत्मा को नहीं जानता.
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