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________________ 克尔克·章返京惠箪些常常 *-*-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी मान-सम्मान भी होवे। उनके भावों में असत्य संसार के विषयादि से, धनादि से मोह होता है तथा मिथ्यात्व भाव भी होता है। इस कारण ऐसे माया मिथ्या निदान शल्य सहित तीव्र विषय आदि के राग से जीव बाहर से पुण्य कार्य करते हुए भी तीव्र कृष्णादि लेश्या से नरक आयु बांधकर नरक चले जाते हैं। इस राग भाव में अज्ञान सहित जीव ऐसे काव्य ग्रन्थ, नाटक, उपन्यास आदि रचते हैं, जिनके पढ़ने से संसार का व विषय भोग का राग बढ़ जाता है, कामेच्छा प्रबल हो जाती है, पांचों इन्द्रियों के भोगों की अति तृष्णा बढ़ जाती है। कोई जीव इस राग भाव से धर्म शास्त्र के नाम पर ऐसे ग्रन्थ रचते हैं जो मिथ्यात्व और एकांतवाद को पुष्ट करते हैं। जिनेन्द्र कथित सत्य धर्म के विपरीत गृहीत- अगृहीत मिथ्यात्व, कुदेव- अदेव आदि की पूजा भक्ति का विधान लिखकर जीवों को मिथ्यामार्ग में प्रेरित करते हैं। कोई जीव इस राग भाव में अज्ञान जनित तप तपते हैं, नाना प्रकार के भेष और लोक मूढ़ता जनित क्रियायें करते हैं। लोगों को लोक मूढ़ता आदि में फंसाते हैं। अभिप्राय इस लोक व परलोक में स्वार्थ साधन का होता है। भावों की शुद्धि की पहिचान नहीं है, भावों में विषय-कषाय रखते हैं, संसारी कामना - वासना में लिप्त रहते हैं, ऐसे तीव्र मूर्च्छावान अज्ञानी तपस्वी भी इस असत्य राग से नरकायु बांध कर नरक जाते हैं। सम्यक दृष्टि आत्मज्ञान की सहायता से ऐसे कुत्सित राग को बिल्कुल त्याग देते हैं, उनका राग भाव विला जाता है, वीतरागता की साधना करते हैं। जो राग, पुण्य व निमित्त के आश्रय से धर्म होना बतलाते हैं वे अज्ञानी जीव संसार में ही रुलते हैं। जिन्हें ध्यान रूपी तप की खबर ही नहीं है, वे तो बाह्य में तपस्या करके धर्म प्राप्ति मानते हैं व शोभायात्रा निकालते हैं परंतु अभी जिनकी कुदेवादि की श्रद्धा मान्यता ही नहीं छूटी, उनको धर्म ध्यान नहीं हो सकता वे तो गृहीत मिथ्यादृष्टि हैं, ऐसे जीवों को यह बात ही नहीं जंचती कि आत्मा पुण्य-पाप रहित है और आत्मा की जो धर्म क्रिया है सो उनके लक्ष्य में ही नहीं आती, . वे तो जड़ की, शरीर की क्रिया में ही धर्म मानकर अधर्म का ही सेवन करते हैं। सम्यक् दृष्टि ज्ञानी जानते हैं कि निज आत्मा ही चिदानंद प्रभु है, पुण्य-पापादि पर्याय में है व उनका नाश होने पर स्वयं सर्वज्ञ हो सकते हैं, ऐसे आत्मज्ञान पूर्वक राग भाव को छोड़ देते हैं, उनका राग विला जाता है। प्रश्न- इस राग भाव से छूटने का उपाय क्या है ? 器 ८२ गाथा - ९५-९७ -*-*-*-*-* समाधान- सम्यक्दर्शन पूर्वक सम्यक्ज्ञान होने पर ही यह राग भाव विलाता है। अज्ञानी इस राग भाव में फंसा निरंतर कर्म का बंध करता है। जिसे संसार के जन्म-मरण से छूटना हो, जिसका सेनापति यह राग भाव है, उसे भेदज्ञान पूर्वक सम्यक्ज्ञान प्राप्त करने का पुरुषार्थ करना चाहिये। प्रश्न जब तक सम्यक्ज्ञान नहीं होता तब तक इस राग भाव से क्या-क्या होता है ? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - रागं च राग जुत्तं, मिथ्या तव तवेहि संचरनं । कुन्यानं संजुस, राग सहावेन दुग्गए प ।। ९५ ।। रागं च राग सहियं, जनरंजन विकहा भाव संजुतं । जिन द्रोही जिन उत्तं, राग सहावेन दुग्गए पत्तं ।। ९६ ।। विन्यान न्यान रहियं, राग सहावेन पज्जाव पर दिई । न्यान सहावं विरयं जनरंजन राग नस्य वासम्मि ।। ९७ ।। - , अन्वयार्थ (रागं च राग जुत्तं) राग से राग में युक्त होना, राग के उदय में राग पूर्वक लगना (मिथ्या तव तवेहि संचरनं) मिथ्या तप तपना और मिथ्यात्व सहित व्रतादि आचरण करना (कुन्यानं संजुत्तं) कुज्ञान में लीन रहना (राग सहावेन) ऐसे राग स्वभाव से ( दुग्गए पत्तं) दुर्गति प्राप्त होती है। (रागं च राग सहियं) राग से राग सहित होना, राग के उदय में राग सहित लिप्त रहना (जनरंजन विकहा भाव संजुत्तं) जनरंजन और विकथा भाव में लगे रहना (जिन द्रोही) वे जिन धर्म के द्रोही हैं (जिन उत्तं) ऐसा जिनेन्द्र ने कहा है (राग सहावेन दुग्गए पत्तं) वे ऐसे राग स्वभाव से दुर्गति में जाते हैं। (विन्यान न्यान रहियं) भेदविज्ञान से रहित, जो भेदविज्ञान से शून्य, रहित है वह (राग सहावेन) राग स्वभाव से (पज्जाव पर दिट्ठ) पर्याय और पर को देखता है (न्यान सहावं विरयं) ज्ञान स्वभाव से विरक्त है, ज्ञान स्वभाव जानता ही नहीं है (जनरंजन राग) वह जनरंजन राग से (नरय वासम्मि) नरक में वास करता है। - विशेषार्थ - राग से राग में युक्त होकर मिथ्या तप तपना, मिथ्या व्रतादि आचरण करना, कुज्ञान में लीन रहना ऐसे राग स्वभाव से दुर्गति प्राप्त होती है। 货到
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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