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गाथा-९२-९४3-9-14--*
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* ******* श्री उपदेश शुद्ध सार जी * लालसा रहती है। व्यवहार दृष्टि में शरीर सहित अशुद्ध आत्मायें विचित्र प्रकार की * दिखती हैं, तब मोही जीव जिनसे अपने विषय-कषाय पुष्ट होते हैं उनको राग
भाव से व जिनसे विषय कषायों के पोषण में बाधा होती है उनको द्वेष भाव से * देखता है। अनादि अविद्यारूपी केले के मूल की गांठ की भांति मोह, उसके
उदयानुसार प्रवृत्ति की आधीनता से, परद्रव्य, परजीव के निमित्त से उत्पन्न मोह, राग-द्वेषादि भावों में एकता रूप से लीन होकर प्रवृत्त होता है तब पुद्गल कर्म के प्रदेशों में स्थित होने से युगपत् पर को एकत्व पूर्वक जानता है और पररूप से एकत्व पूर्वक परिणमित होता हुआ पर समय है।
निश्चय से सर्व पदार्थ अपने-अपने स्वभाव में स्थित रहते हुए ही शोभा पाते हैं परंतु जीव पदार्थ की अनादिकाल से पुद्गल कर्म के साथ निमित्त रूपबंध अवस्था है, उससे उस जीव में विसंवाद खड़ा होता है, राग पैदा होता है।
इस लोक में समस्त जीव संसार रूपी चक्र पर चढ़कर पंच परावर्तन रूप भ्रमण करते हैं। वहाँ उन्हें मोह कर्मोदय रूपी पिशाच के द्वारा जोता जाता है इसलिये वे विषयों की तृष्णारूपी दाह से पीड़ित होते हैं और इस दाह का इलाज इन्द्रियों के रूपादि विषयों को जानकर उनकी ओर दौड़ते हैं तथा परस्पर भी विषयों का ही उपदेश करते हैं, यही राग बंध का कारण है।
इस प्रकार काम, भोग तथा बंधन की कथा तो अनंतबार सुनी, परिचय में प्राप्त की और उसी का अनुभव किया इसलिये वह सुलभ है किन्तु सर्व परद्रव्यों से भिन्न एक चैतन्य चमत्कार स्वरूप अपने आत्मा की कथा का ज्ञान अपने को अपने से कभी नहीं हुआ और जिन्हें वह ज्ञान हुआ है उनकी कभी सेवा नहीं की इसलिये उसकी कथा न तो कभी सुनी, न परिचय किया और न अनुभव किया इसलिये उसकी प्राप्ति सुलभ नहीं, दुर्लभ है।
जब यह जीव सर्व पदार्थों के स्वभाव को प्रकाशित करने में समर्थ केवलज्ञान को उत्पन्न करने वाली भेदज्ञान ज्योति का उदय होने से सर्व पर द्रव्यों से छूटकर ज्ञान दर्शनमयी ममल ज्ञान स्वभाव में नियत वृत्तिरूप आत्मतत्त्व के साथ एकत्व रूप में लीन होकर प्रवृत्ति करता है तब दर्शन ज्ञान चारित्र में स्थित होने से अपने
स्वरूप को एकत्व रूप से एक ही समय में जानता तथा परिणमता हआ वह स्व * समय है।
सम्यक्दृष्टि ऐसा जानता है कि शुद्ध निश्चय से मैं मोह, राग-द्वेष रहित हूँ * इससे वह समस्त राग भाव को छोड़ देता है।
प्रश्न - यह राग भाव से क्या होता है? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैंराग सहावं उत्तं, जन रंजन पुन्य भाव संजुतं । अनित असत्य सहिओ, राग संजुत्त नरय वासम्मि ॥ १२ ॥ राग सहावं पिच्छदि, अन्यान सहकार श्रुतं बहु भेयं । मिच्छात विषय सहियं, रागं विलयंति न्यान सहकारं ॥ १३ ॥ राग सहावं उत्तं, अन्यानं तव तवंति संजुत्तं । जनरंजन मूढ़ सहावं, जन उत्तं राग नरय वासम्मि ।। ९४॥
अन्वयार्थ- (राग सहावं उत्त) राग का स्वभाव कहते हैं, कहा गया है (जन रंजन) जनरंजन और (पुन्य भाव संजुत्तं) पुण्य भाव में लीन रखता है, पुण्यकार्यों को इष्ट उपादेय मानता है और उनमें लगा रहता है (अनित असत्य सहिओ) नाशवान झूठे कार्यों एवं भावों में लगा रहता है (राग संजुत्त नरय वासम्मि) ऐसे राग में लीन रहने से नरक में वास करना पड़ता है।
(राग सहावं पिच्छदि) राग का स्वभाव विचित्र, नाना प्रकार का होता है (अन्यान सहकार) अज्ञान के सहकार से (श्रुतं बहु भेयं) नाना प्रकार के शास्त्रों की रचना की जाती है (मिच्छात विषय सहियं) जो मिथ्यात्व विषयादि सहित होते हैं, जिनमें मिथ्यात्व की व इन्द्रिय विषय भोगों की पुष्टि की जाती है (रागं विलयंति न्यान सहकारं) सम्यक्ज्ञान होने पर ही यह राग विलाता है।
(राग सहावं उत्त) राग का स्वभाव कहा गया है (अन्यानं तव तवंति संजुत्तं) अज्ञान जनित तपतपता है (जनरंजन मूढ सहावं) जनरंजन में और लोक मूढता आदि में रत रहता है (जन उत्तं) लोगों के कहने में लगा रहता है (राग नरय वासम्मि) ऐसे राग भाव से नरक में वास करना पड़ता है।
विशेषार्थ - राग का स्वभाव बड़ा विचित्र, नाना प्रकार का होता है, अज्ञानी जीव निरंतर इसके चक्कर में ही फंसा रहता है, यह जीव को पुण्य-पाप में ही भ्रमाता रहता है। कोई जीव धर्म कार्यों में बड़ी भक्ति, बड़ा राग भाव उत्साह दिखलाते हैं परंतु उनका आशय आत्म हित, वैराग्य का नहीं होता, वे ऐसा आशय रखते हैं कि स्त्री-पुरुष, बालक-बालिका सब समाज बंधु बड़े प्रसन्न हों और मुझसे अति स्नेह करें, मेरा पारिवारिक कार्य स्वार्थ सिद्ध हो जाये तथा मेरी प्रतिष्ठा,
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