________________
2-4-******* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
गाथा - ९१*
*
*
**
-HE-5-16-3-15
E
राग से ही इन्द्रियों के विषय भोगने की आसक्ति पैदा होती है, आसक्ति से * कामना, कामना से आशा तृष्णा पैदा होती है। विषय भोग की तृष्णा से आतुर * प्राणी यदि अन्याय से सामग्री एकत्र करता है, बहुत मूछीवान होता है तो नरक * आयु बांधकर नरक चला जाता है। यदि मायाचार करके दूसरों को ठग करके
अपना स्वार्थ साधता है तो निर्यच आयु बांधकर तीव्र या मंद पाप के अनुसार एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय पशु तक में जन्म लेता है। यदि आशा तृष्णावान होकर भी कोमल भाव रखता है तो मनुष्य आयु बांधकर मनुष्य होता है। यदि विषय भोग की लालसा से तीव्र सुख की वासना से वासित हो धर्म का सेवन करता है, दान, पूजा, जप, तप, करता है या श्रावक का तथा साधु का चारित्र पालता है तो देवायु बांधकर नवमें ग्रैवेयक तक चला जाता है, वहाँ से आकर मिथ्यात्व के योग से पुन: चतुर्गति में भ्रमण करता है। जिसने इस रागादि भाव का वमन कर दिया है, अपने आत्म स्वरूप सच्चे सुख को पहिचान लिया है, वही सम्यक्त्वी जीव कर्म मल से रहित होकर शिव सुख को पाता है।
आशा नाम नदी मनोरथ जल: तृष्णा तरंगा: कुलाः। राग ग्राहवती वितर्क विहगा धैर्य दुमध्वंसिनी ॥ मोहावर्त सुदुस्तराऽति गहना प्रोतुङ्ग चिंतातटी।
तस्या पारगता विशुद्ध मनसो धन्यास्तु योगीश्वराः ॥ साधक को भयभीत, भ्रमित करने वाले-भावकर्म, संयोगी अशुद्ध पर्याय और पापादि अशुभ कर्म हैं, इससे जीव हमेशा भयभीत रहता है।
मोह-घर में बांधकर रखता है, राग-समाज और संसार में बांधकर रखता है। मोह के सद्भाव में भयभीतता, शंका-कुशंका होती है। राग के सद्भाव में संकल्प-विकल्प, मदहोशी, प्रमाद होता है।ष के सद्भाव में खेद खिन्नता क्षोभ, दु:ख, चिंता, क्रोध होता है।
जब तक मोह-राग का सद्भाव है, कर्मोदय के अनुसार जैसा निमित्त मिलेगा, तद्प परिणमन होगा। मोह, राग-द्वेषादि भाव कर्म को बलवान बनाने * वाले उस ओर की चाह, रूचि और उनमें भयभीतपना है। सम्यक्दृष्टि ज्ञानी अपने विमल स्वभाव की साधना से रागादि भावों को क्षय करता है।
स्वयं पर से और विभाव से भिन्नता का विचार करना चाहिये, एकता बुद्धि * तोड़ना वह मुख्य है । प्रतिक्षण एकत्व को तोड़ने का अभ्यास करना चाहिये।
स्वभाव की महिमा से पर पदार्थों के प्रति रस बुद्धि, सुख बुद्धि टूट जाती है।
स्वभाव में ही रस आता है और सब नीरस लगता है, तभी अंतर की सूक्ष्म संधि ज्ञात होती है।
संयोग, संबंध, जिम्मेदारी, विकल्प और चिंता का कारण है. इनमें फंसा जीव बिल्कुल निश्चिन्त नहीं हो सकता। पर की तरफ देखना, कुछ भी अपेक्षा करना, जरा सी भी कोई चाह होना ही राग और संसार का कारण है। राग-द्वेष से ही कर्मों का बंध होता है।
कर्म का बंध दिखता नहीं है-कर्म का उदय दिखता है।
अशुभ कर्म के उदय में कोई साथ नहीं देता, खदही भोगना पड़ता है, पाप कर्म के उदय में तो कोई पूछता भी नहीं है। अपनत्व और कर्तृत्व के कारण ही राग-द्वेष होते हैं।
प्रश्न-राग की उत्पत्ति का मूल कारण क्या है? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं -
जनरंजन राग जनरंजन राग उपत्ति, जन उत्तं जन रंजनानि सदिड्डी। पर सुभाव पर समयं, तिक्तंति राग ममल न्यानस्य ॥११॥
अन्वयार्थ-(जन रंजन राग उपत्ति) जगत के जीवों को रंजायमान, प्रसन्न संतुष्ट, सुखी करने के हेतु से राग की उत्पत्ति होती है (जन उत्तं) लोगों के कहने में लगना (जन रंजनानि) लोगों को रंजायमान करने के लिये विकथा आदि करना (सद्दिट्टी) उनकी तरफ देखना (पर सुभाव पर समयं) यह सब पर भाव
और पर समय है (तिक्तंति राग) त्याग कर देता है, छोड़ देता है राग को (ममल न्यानस्य) ममल ज्ञान के द्वारा अर्थात् ममल स्वभाव का साधक ज्ञानी रागभाव को छोड़ देता है।
विशेषार्थ- राग की उत्पत्ति का मूल कारण जनरंजन है अर्थात् जगत के जीवों की तरफ देखना, उनको प्रसन्न संतुष्ट करना, उनके कहने में लगना, व्यर्थ चर्चा करना यह सब परभाव और परसमय है। इससे कर्म बंध होता है, संसार परिभ्रमण का चक्र चलता है। ममल स्वभाव का साधक ज्ञानी ऐसे जनरंजन राग भाव को छोड़ देता है।
___ जब तक जीव अज्ञानी मिथ्यादृष्टि है, संसारासक्त है तब तक इसको इष्ट इन्द्रिय विषयों की प्राप्ति की कामना रहती है व बाधक कारणों को मिटाने की