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________________ ********* श्री उपदेश शुद्ध सार जी गाथा-९०EEEERH * चलने वाली पर्याय का भी लक्ष्य नहीं रखता क्योंकि इस विचार में विकल्प है, रागादी उववन्न, राग सहावेन चौगए भमियं । * जहाँ विकल्प है वहाँ शुद्ध भाव शुद्धोपयोग नहीं है। यद्यपि इस विचार का आलंबन कर रागं च विषय जुत्तं, राग विलयंति विमल सहकारं ॥ १०॥ * दूसरे शुक्लध्यान तक है तथापि सम्यक्दृष्टि इस आलंबन को भी त्यागने योग्य अन्वयार्थ- (रागादी उववन्न) रागादि, मोह राग द्वेष भाव पैदा होने से जानता है। सम्यक्दृष्टि का देव गुरु शास्त्र, घर उपवन सब कुछ अपना ही एक (राग सहावेन) राग के स्वभाव से (चौगए भमियं) चारों गतियों में भ्रमण करता है शुद्धात्मा है। ऐसा शुद्ध दृढ श्रद्धान जिसको होता है वही सम्यकदृष्टि ज्ञानी है, वही (रागं च विषय जुत्तं) राग होने से ही विषयों में युक्त होता है (राग विलयंति) राग उस नौका पर आरूढ़ है, जो संसार सागर से पार करने वाली है। विला जाता है (विमल सहकारं) अपने विमल स्वभाव को स्वीकार करने से। व्यवहार के मोह से कर्म का क्षय नहीं होता, व्यवहार का मोही मोक्षमार्गी विशेषार्थ-रागादि भाव पैदा होने से चारों गतियों में भ्रमण करना पड़ता नहीं है। ज्ञानीजन निश्चय पदार्थ को छोड़कर, व्यवहार रूपपर्याय में नहीं प्रवर्तते हु है। राग होने से ही विषयों की आसक्ति होती है। अपने विमल स्वभाव आत्म हैं, व्यवहार से मोह नहीं रखते हैं। जो अपने शुद्धात्मा का आश्रय करते हैं, उन्हीं स्वरूप को जानने स्वीकार करने से राग विला जाता है। के कर्मों का क्षय होता है और निर्वाण की प्राप्ति होती है। जो बाहरी भेष व चारित्र यह जीव, पुद्गल शरीरादि कर्मों की संगति में ऐसा एकमेक हो रहा है कि सहित है परंतु भीतरी आत्मानुभव चारित्र से रहित है, वह स्व चारित्र से भ्रष्ट होता यह अपने को भूल ही गया है। कर्मों के उदय के निमित्त से जो रागादि भाव कर्म हुआ संसार परिभ्रमण करता दु:ख भोगता है। व शरीरादि नोकर्म होते हैं, उन रूप ही अपने को मानता रहता है। पुद्गल के द्वितीय-राग मोहांध अधिकार मोह में उन्मत्त हो रहा है, इसी से कर्म का बंध करके बंधन को बढ़ाता है व कर्मों के प्रश्न-जब मुक्ति का कारण मूल आधार ज्ञान है तो संसार का कारण उदय से नाना प्रकार फल भोगता है। जन्म-मरण, जरा, इष्ट वियोग, अनिष्ट मूल आधार क्या है? संयोग का अपार कष्ट है, आशा तृष्णा की दाह का अपार दु:ख है। जब श्री गुरु के समाधान - संसार का कारण, मूल आधार, अज्ञान, राग-द्वेष, मोह है, प्रसाद से या जिनवाणी स्वाध्याय शास्त्र प्रवचन से इसको यह भेदविज्ञान हो कि जिसके कारण जीव अनादि से चारगति चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण कर मैं तो जीवद्रव्य हूँ, मेरा स्वभाव परमशुद्ध निरंजन, निर्विकार, अमूर्तीक, पूर्ण नाना प्रकार के दु:ख भोग रहा है। दर्शन ज्ञानमयी, आनंद स्वरूप है। मेरे साथ पुद्गल का संयोग मेरा रूप नहीं है, प्रश्न - यह अज्ञान, राग-द्वेष, मोह क्या है, इनका स्वरूप क्या है? मैं निश्चय से पुद्गल शरीरादि व पुद्गल कृत सर्व रागादि विकारों से भिन्न हूँ, तभी यह रागादि भाव विलाते हैं। समाधान - अपने स्वरूप का विस्मरण और विभाव रूप परिणमन ही जीव से अजीव, लक्षण से ही भिन्न है इसलिये ज्ञानी जीव अपने को सर्व अज्ञान है। पर का आकर्षण लगाव ही राग है, इसके कई रूप हैं- पर में प्रियता, रागादि से व शरीरादि से भिन्न ज्ञानमय प्रकाशमान एकरूप अनुभव करता है। इष्टता, रति, चाह, रुचि, इच्छा, कामना, वासना आदि सब राग है और यह सब आश्चर्य व खेद है कि अज्ञानी जीव में अनादिकाल से यह मोह भाव क्यों नाच रहा अज्ञान से होता है। पर से विद्वेष, घृणा, बैर, विरोध, अनिष्टता, अरुचि, अरति है, जिससे यह अजीव को अपना स्वरूप मान रहा है। दो द्रव्यों को न्यारे-न्यारे आदि द्वेष है। कुछ भी अच्छा-बुरा लगना राग-द्वेष है। पर को अपना मानना ही नहीं देखता है इसी से संसार है। मोह है। ममता ममत्व अपनत्व आदि सब मोह है, यही मिथ्यात्व कहलाता है। राग-मल (विटा) है। मोह-मविरा (शराब) है।माया-छल धोखा है *मोह से सुख-दु:ख होता है और राग-द्वेष से कर्मबंध होते हैं। इनके चक्कर से बचने वाला ही स्वस्थ आनंद में रहता है। मोही-कर्ता है, प्रश्न - यह रागादि कैसे होते हैं, इनसे क्या होता है और इनसे रागी-भोक्ता है। निर्मोही-अकर्ता है, वीतरागी-अभोक्ता है। छूटने बचने का क्या उपाय है? कर्मोदय को भोगने वाला, उनमें लिप्त तन्मय रहने वाला अज्ञानी इसके समाधान में सद्गुरु तारण स्वामी आगे गाथा कहते हैं - है। कर्मोदय का शायक, उनमें निर्विकारी न्यारा रहने वाला शानी है। ** ******** FEEK
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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