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*-*-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
को ही देखता है, पर्याय में सशंकित, भयभीत लिप्त रहने से निगोद में वास करना पड़ता है । स्वभावदृष्टि सम्यकदृष्टि । पर्याय दृष्टि - मिथ्यादृष्टि ।
द्रव्य तो त्रिकाली और निरावरण है परंतु वर्तमान पर्याय में रागादि को मिश्रित कर रखा है तो भी भेदज्ञान की प्रवीणता से, राग दशा की दिशा 'पर की ओर' है व ज्ञान दशा की दिशा 'स्व की ओर' है। ज्ञान लक्षण से लक्षित चैतन्य स्वभाव का अनुभव होने पर, यह अनुभूति ही मैं हूँ, ऐसा सम्यक्ज्ञान होता है। आत्मा अचिन्त्य सामर्थ्य वाला है, उसमें अनंत गुण स्वभाव हैं, उसकी रुचि हुए बिना उपयोग पर में से पलटकर स्व में नहीं आ सकता। जो पाप भावों की रुचि में पड़े हैं उनका तो नरक में वास होता है, जो पुण्य की रुचि वाले हैं वह बाह्य त्याग करें, तप करें, द्रव्यलिंग धारण करें तो भी शुभ की रुचि है, तब तक उपयोग पर की ओर से पलटकर स्व में नहीं आ सकता। जो पर्याय को ही देखने में लगे हैं उसी में सशंकित, भयभीत लिप्त हैं वे तो निगोद में ही वास करते हैं। अनादि अज्ञान मिथ्यात्व छूटने पर ही स्वभाव दृष्टि होती है, जो स्वभाव दृष्टि रखता है, उसके ज्ञान में शुद्धि होकर केवलज्ञान प्रगट होता है और जो पर्याय में ही लिप्त रहता है, वह संसार परिभ्रमण करता है। जब बाहर के हीनाधिक संयोगों का लक्ष्य छूट जाये, कषाय की तीव्रता-मंदता का लक्ष्य छूट जाये और पर्याय चैतन्य वस्तु को लक्ष्य कर तद्रूप परिणमित हो तभी मिथ्यात्व अज्ञान का त्याग होता है।
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मैं मुक्त ही हूँ, मुझे कुछ नहीं चाहिये, मैं तो परिपूर्ण विमल स्वभावी ज्ञान मात्र चेतन सत्ता हूँ, इस प्रकार जहाँ अंतर में निर्णय होता है, वहाँ अनंत विभूति अंशतः प्रगट हो जाती है। शुद्धात्मा को जाने बिना भले ही क्रियाओं के ढेर लगा दें परंतु उससे आत्मा नहीं जाना जा सकता, ज्ञान से ही आत्मा जाना जा सकता है। इसी बात को और आगे गाथा में कहते हैं
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जह पज्जावं दिट्ठ, अप्पा समयं च मुक्त न्यानं च ।
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पज्जा पर पिच्छवि, संसारे सरनि दुष्य वीर्यमि ॥ ८८ ॥ पज्जाव नह दिदि, पर सहाव उप्पत्ति परजाव विलयति न्यानेन न्यान समयं विमल सहावेन निव्वुए अंति ॥ ८९ ॥
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अन्वयार्थ (जह पज्जावं दिट्ठ) जहाँ पर्याय पर दृष्टि रहती है, जो पर्याय को देखता है (अप्पा समयं) आत्म स्वभाव को (च) और (मुक्त न्यानं च) ज्ञान
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गाथा- ८८, ८९ *****
को छोड़ देता है (पज्जावं परु पिच्छदि) पर्याय और पर को देखने जानने में लगा रहता है (संसारे सरनि) संसार परिभ्रमण का (दुष्य वीयंमि) दुःख का बीज बोता है।
(पज्जाव नहु दिट्ठदि) जो पर्याय को नहीं देखता ( पर सहाव उप्पत्ति) पर के स्वभाव से पैदा होती है (पज्जाव विलयंति) पर्याय विला जाती है (न्यानेन न्यान समयं ) ज्ञान से अपने ज्ञान स्वभाव में रहता है (विमल सहावेन) विमल स्वभाव से (निव्वुए जंति) निर्वाण को जाता है, मुक्ति को प्राप्त करता है।
विशेषार्थ - जहाँ पर्याय पर दृष्टि रहती है अर्थात् जो कर्म जनित शरीरादि पर्याय को ही देखता है, वह अपने आत्म स्वभाव को और ज्ञान को छोड़ देता है। जो पर और पर्याय को ही देखने जानने में लगा रहता है, इससे वह दुःख का बीज बोकर संसार में महान कष्ट पाता है।
जो पर्याय को नहीं देखता है उसकी पर स्वभाव से पैदा होने वाली पर्याय विला जाती है। ज्ञान पूर्वक अपने ज्ञान स्वभाव में रत रहने से, विमल स्वभाव की साधना से निर्वाण प्राप्त करता है अर्थात् संसार से मुक्त हो जाता है।
जिनेन्द्र परमात्मा की आज्ञा उपदेश का शुद्ध सार यही है कि विमल, ममल स्वभाव आत्मा का अनुभव करो, अपने ज्ञान स्वभावमय रहो। यह अनुभव तब ही होगा जब, सर्व पर के आश्रित व्यवहार का मोह त्यागा जायेगा, पर पदार्थ का परमाणु मात्र भी हितकारी नहीं है। व्यवहार धर्म, व्यवहार सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्र का जितना विषय है वह सब त्यागने योग्य है। सम्यकदृष्टि चाहे गृहस्थ हो या साधु, केवल अपने शुद्ध आत्मा को ही इष्ट हितकारी जानता, मानता है, शेष सर्व को त्यागने योग्य परिग्रह जानता है, पर पर्याय का लक्ष्य ही नहीं रखता।
यद्यपि मन को शुभोपयोग में लगाने व ज्ञान की निर्मलता के लिये सात तत्त्वों का विचार करता है, जिनवाणी का पठन-पाठन मनन व उपदेश करता है। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, परिग्रह त्याग पांच व्रतों को एकदेश या सर्वदेश पालता है, मंत्र जप करता है, उपवास करता है, संयम, तप करता है तो भी इन सब कार्यों को व्यवहार जानकर छोड़ने योग्य समझता है क्योंकि व्यवहार के साथ राग करना कर्म बंध का कारण है। केवल अपनी चैतन्य ज्योति स्वरूप आत्मा ही इष्ट उपादेय है। सर्व चेतन-अचेतन व मिश्र परिग्रह को त्यागने योग्य समझता है। सिद्ध परमेष्ठी का ध्यान भी शुभोपयोग है और तो क्या गुण गुणी के
भेद का विचार भी परिग्रह है, व्यवहार है, त्यागने योग्य है। अपनी एक समय की
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