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________________ गाथा-८६,८७HHHHHH - श्री उपदेश शुद्ध सार जी * शुद्ध और निर्मल रहता है (सुद्ध समयं च) शुद्ध आत्मा में रत रहता है (पर्जाव नहु पिच्छं) पर्याय को नहीं देखता। (जस्सय) जैसा, जिस प्रकार (विमल सहावं) विमल स्वभाव है (अन्मोयं * न्यान) ज्ञान का आलंबन लेता है (पर्जाव नहु पिच्छं) पर्याय को नहीं देखता (जै पज्जावं दि8) यदि पर्याय को देखता है (समलं सहकार) समल भाव, विकारी भावों में जुड़ता है (निगोय वासम्मि) वह निगोद में वास करता है। विशेषार्थ - "ज्ञान का मार्ग कृपाण की धारा" सूक्ष्म दृष्टि से ही इस मार्ग पर चला जाता है। जैसा शुद्ध स्वभाव है, उसका ही निरंतर स्मरण ध्यान रहना चाहिये। अशुद्ध पर्याय की तरफ न देखना है, न उसकी बात करना है, जो अपने शुद्ध आत्मा में रत रहता है, उसका ज्ञान ही शुद्ध और निर्मल होता है। जैसा कि विमल स्वभाव है ज्ञान उसी का आलंबन लेता है, आश्रय रखता है, उससे जरा भी नहीं हटता, पर्याय को भी नहीं देखता, तभी ज्ञान भाव में स्थित रहता है। जो पर्याय को देखता है, विकारी भावों में जुड़ता है, वह अज्ञानी मिथ्यादृष्टि निगोद में वास करता है। सम्यकदृष्टि द्रव्य स्वभाव को जानता है, जैसा आत्मा का शुद्ध स्वभाव है वह उसकी अनुभूति में आ गया है इसलिये वह समल स्वभाव अशुद्ध पर्याय की बात भी नहीं करता। वह अपने शुद्धात्म स्वरूप में रत रहता है तभी उसका ज्ञान शुद्ध और निर्मल होता है। पर्याय को देखना, विकारी भावों में जुड़ना, उसमें अच्छा-बुरा मानना, यह सब अज्ञान मिथ्यात्व भाव है जिसका परिणाम निगोद में वास करना है। ज्ञान का यही कार्य होना चाहिये. जो अपने आत्मा का यथार्थ ज्ञान पावे. ज्ञानी होकर वीतरागता के कारणों का अभिनंदन किया जावे। जो कोई ऐसा न करके शरीर का व शरीर के सुखों का व शरीर के संबंधियों का अभिनंदन करे, अशुद्ध पर्याय को देखे, उसी को जानने में लगा रहे तो वह आत्मशक्ति घातक अंतराय कर्मों को बांधकर दुर्गति को प्राप्त होता है। आत्मा को आत्मा से जानने में यहाँ कौन सा फल नहीं मिलता? और तो * क्या, इससे केवलज्ञान भी हो जाता है और जीव को शाश्वत सुख की प्राप्ति होती * है, ज्ञानी उसको कहते हैं जो त्रिकाली ध्रुव स्वभाव को पकड़े है, उसकी पर्याय में वीतरागता प्रगट होने पर भी वह पर्याय में रुकता नहीं, पर्याय को देखता नहीं, उसकी दृष्टि तो त्रिकाली ध्रुव पर टिकी है। धर्म दशा प्रगट हो, निर्मल पर्याय प्रगट हो परंतु ज्ञानी इन पर्यायों में भी नहीं रुकता, इनका लक्ष्य नहीं रखता। त्रिकाली ध्रुव विमल स्वभाव को पकड़ने पर ही सम्यकदर्शन होता है, इसी से सम्यक्ज्ञान होता है, शुद्ध स्वभाव में रहने पर ही सम्यक्चारित्र होता है, इसी से केवलज्ञान होता है। धर्मी की दृष्टि आत्म द्रव्य पर से हटती नहीं है और जो यह दृष्टि वहाँ से खिसककर वर्तमान पर्याय में रुके, एक समय की पर्याय को देखे, पर्याय की रुचि हो जाये तो विमल स्वभाव की दृष्टि छूट जाये और वह मिथ्यादृष्टि हो जाये। प्रश्न - स्वभाव दृष्टि और पर्याय दृष्टि होने से क्या होता है? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - न्यान सहावं सुद्धं, सुद्धं ससहाव विमल दिट्ठीओ। न्यान सहाव सुसमय, पर्जाव ससंक नरय वासम्मि ॥८६॥ न्यानेन न्यान मिलियं, विमल सहावेन न्यान उप्पत्ती। तह पज्जावं दिहं, पर्जय ससंक निगोय वासम्मि ॥ ८७ ।। अन्वयार्थ - (न्यान सहावं सुद्ध) ज्ञान स्वभाव की शुद्धि होने से अर्थात् सम्यज्ञान होने से (सुद्धं ससहाव विमल दिट्ठीओ) शुद्ध विमल स्व स्वभाव दिखाई देता है, अनुभव में आता है (न्यान सहाव सुसमय) ज्ञान स्वभावी स्वयं शुद्धात्मा है, ऐसे स्वभाव को न देखकर जो (पर्जाव ससंक) पर्याय में सशंकित, पर्याय में लिप्त रहता है (नरय वासम्मि) वह नरक में वास करता है। (न्यानेन न्यान मिलिय) ज्ञान से ज्ञान मिलता है, ज्ञानोपयोग से ज्ञान में निर्मलता आती है (विमल सहावेन न्यान उप्पत्ती) विमल स्वभाव में रहने से केवलज्ञान प्रगट होता है (तह पज्जावं दि8) इसके विपरीत जो पर्याय को ही देखता है (पर्जय ससंक निगोय वासम्मि) पर्याय में सशंकित, भयभीत, लिप्त रहने से निगोद में वास करना पड़ता है। विशेषार्थ- ज्ञान की शुद्धि होने से स्वभाव दृष्टि रहती है. अपना विमल ४ शुद्ध स्वस्वभाव ही दिखाई देता है। आत्मा ज्ञान स्वभावी ही है, जो अपने शुद्धात्म स्वभाव को नहीं देखता, स्व स्वभाव की अनुभूति नहीं करता और पर्याय में ही सशंकित लिप्त रहता है, वह नरक में वास करता है। ज्ञानोपयोग से ज्ञान में निर्मलता आती है, ज्ञान का प्रकाश वृद्धिगत होता है। विमल स्वभाव में रहने से केवलज्ञान प्रगट होता है, इसके विपरीत जो पर्याय HAKHAkk स ¥是引决斗者长 ------------ ७७
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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