SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गाथा - ८४,८५KERH -E-5-16--15 E * ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी * उलझो, विकारी भावों को मत देखो (अन्यान भाव सयल विलयंति) अज्ञान भाव * सारे विला जाने वाले हैं, विला जाते हैं (न्यान सहाव उवन्न) ज्ञान स्वभाव प्रगट * करो (अन्मोयं विमल) अपने विमल स्वभाव का आलंबन लो, अनुमोदना करो * (पर्जाव नहु पिच्छं) पर्याय को मत देखो, पर्याय को जानने में मत लगे रहो। (अन्यान संग विलयं) अज्ञान का साथ छूटने पर (न्यान सहावेन) ज्ञान स्वभाव से (विन्यान संजुत्तं) भेदविज्ञान में रत रहो (न्यानं न्यान उवन्न) ज्ञान से ज्ञान प्रगट होता है (न्यान समयं च) अपने ज्ञान स्वभाव आत्मा में लीन रहो (पर्जाव नहु पिच्छं) पर्याय को मत देखो, पर्याय को जानने पहिचानने में मत लगे रहो। विशेषार्थ - सम्यक्त्व की शुद्धि, विमल स्वभाव के प्रगट होने पर राग-द्वेषादि भाव विकारी पर्याय दिखाई नहीं देती। पर्याय अनेक प्रकार की होती है, अपने ज्ञान स्वभाव में रहने से पर्याय विला जाती है । अज्ञान दृष्टि, मिथ्या मान्यता में मत उलझो, विकारी भावों को मत देखो। यह अज्ञान मय विकारी पर्यायी भाव तो सब विला जाने वाले हैं। अपना ज्ञान स्वभाव प्रगट करो, अपने विमल स्वभाव का आलम्बन लो, पर्याय को मत देखो, इसके जानने में मत लगे रहो। ज्ञान स्वभाव की साधना में रत रहो, निरंतर भेदज्ञान, तत्त्व निर्णय करते रहो, पर्याय को मत देखो, इसमें मत उलझो । ज्ञान से ज्ञान प्रगट होता है, ज्ञानोपयोग करने से ज्ञान बढ़ता है और सारा अज्ञान भाव छूट जाता है। सम्यक्दृष्टि, जिन आगम का अभ्यास करता है व आगम के ज्ञाता ज्ञानी साधुओं की संगति करता है, उसको आत्मा-अनात्मा का यथार्थ बोध होता है, वह कभी भी रागादि को आत्मा का स्वभाव नहीं मानता है, उन्हें मोह जनित औपाधिक भाव जानता है। वह आत्म मनन व आगम के अभ्यास से अपने ज्ञान को बढ़ाता रहता है। वह वस्तु को भाव-अभाव, नित्य-अनित्य, एक-अनेक रूप भिन्न-भिन्न अपेक्षा से जानता है । वस्तु अपने द्रव्यादि स्व चतुष्टय की * अपेक्षा भाव रूप है। पर के द्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा अभावरूप है। द्रव्य स्वभाव से नित्य है, पर्याय के परिणमन की अपेक्षा अनित्य है। अनंत गुण पर्यायों * का अखंड समुदाय है इससे एक रूप है, भिन्न-भिन्न गुण व पर्याय की अपेक्षा अनेक रूप है। इस प्रकार निरंतर ज्ञानोपयोग करने, वस्तु स्वरूप जानने पर अज्ञान भाव विला जाता है और सम्यक्ज्ञान का प्रकाश हो जाता है। द्रव्य सदा निर्लेप, विमल स्वभाव है, स्वयं ज्ञाता भिन्न ही तैरता है। जिस प्रकार स्फटिक में प्रतिबिम्ब दिखने पर भी स्फटिक निर्मल है, उसी प्रकार जीव में विभाव भाव होने पर भी जीव निर्मल है, निर्लेप है। ज्ञायक रूप परिणमित होने पर पर्याय में निर्लेपता होती है। यह सब जो कषाय राग-द्वेषादि भाव अज्ञान जनित विभाव ज्ञात होते हैं, वे ज्ञेय हैं, मैं तो ज्ञायक हूँ। इस प्रकार प्रज्ञा छैनी को शुभाशुभ भाव और ज्ञान की सूक्ष्म अंत: संधि में पटकना । ज्ञानोपयोग को बराबर सूक्ष्म करके दोनों की संधि में सावधान होकर प्रहार करने से द्रव्य स्वभाव और पर्याय की भिन्नता भासित होती है। पर्याय में अपनत्व और कर्तृत्व का अभाव ही ज्ञान की शुद्धि है। जब तक पर्याय को देखने जानने में लगे रहना है उसमें अच्छा बुरा मानना है, तब तक अज्ञान भाव है। पर से भिन्न ज्ञायक विमल स्वभाव का निर्णय करके बारम्बार भेदज्ञान का अभ्यास करते-करते मति श्रुत ज्ञान के विकल्प टूट जाते हैं, उपयोग गहराई में चला जाता है और केवलज्ञान के साथ केलि प्रारंभ होती है। ज्ञान के अभ्यास से भेदज्ञान होता है व भेदज्ञान के अभ्यास से केवलज्ञान होता है। सम्यक्दृष्टि का ज्ञान अति सूक्ष्म है फिर भी वह राग और स्वभाव के बीच की संधि में ज्ञान पर्याय का प्रवेश होते ही प्रथम बुद्धि गम्य भिन्नता करता है। आत्मा का लक्ष्य तो हुआ है, आत्मा लक्ष्य में है और उसमें एकाग्रता का विशेष पुरुषार्थ भी करता है परंतु जब तक ज्ञान की शुद्धि नहीं हुई वह आगे नहीं बढ़ पाता। प्रश्न- इसके लिये क्या करना पड़ता है? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - जस्सय सुद्ध सहावं, असुद्ध सहावेन दिस्टि नहु वयनं । सुद्धं च विमल न्यानं, सुख समयं च पर्जाव नहु पिच्छं। ८४॥ जस्सय विमल सहावं, अन्मोयं न्यान पर्जाव नहु पिच्छं। जै पज्जावं दिटुं, समलं सहकार निगोय वासम्मि॥८५॥ अन्वयार्थ -(जस्सय) जैसा, जिस प्रकार (सुद्ध सहावं) शुद्ध स्वभाव है (असुद्ध सहावेन) अशुद्ध स्वभाव से (दिस्टि नहु वयन) दृष्टि नहीं बोलती है अर्थात् वह अशुद्ध पर्याय की बात भी नहीं करता (सुद्धं च विमल न्यानं) उसका ज्ञान । E-E E-HEE
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy