SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 75
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -16--15-5-15-3-5 श-52-5 *****-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी असत्य अत्रित वयन, आलापं लोकरंजन भावं । विन्यानं नहु पिच्छदि, संसार अमन वीय संजुत्तं ॥ ८॥ अन्वयार्थ- (असत्य अनित वयनं) झूठे मिथ्यावादी वचन बोलना 0 (आलापं लोकरंजनं भावं) लोगों को रंजायमान करने वाले भाव रखना, व्यर्थ वार्तालाप, विकथा करना (विन्यानं नहु पिच्छदि) भेदज्ञान को नहीं जानना, हित-अहित, सत्य-असत्य का कोई विवेक न होना, ज्ञान स्वरूप को नहीं पहिचानना (संसार भ्रमन) संसार में भ्रमण करने वाले (वीय संजुत्तं) बीज बोना है। विशेषार्थ - भेदविज्ञान को नहीं जानना अर्थात् अपने हित-अहित, सत्य-असत्य का विवेक न होना, ज्ञान स्वरूप को नहीं पहिचानना और झूठे मिथ्यावादी वचन बोलना, लोगों को रंजायमान करने के लिये व्यर्थ वार्तालाप करना, यह संसार में भ्रमण कराने वाले कर्म बंध का बीज बोना है। सम्यकदृष्टी जीव विवेकवान होता है,भेदविज्ञान का निरंतर अभ्यास करता रहता है, वह अपना स्वार्थ साधने के लिये अन्याय रूप मिथ्या प्रवृत्ति नहीं करता, झूठ बोलकर किसी को ठगता नहीं है, न लोगों के मन प्रसन्न करने को चार प्रकार की विकथा में अपना समय नष्ट करता है। ज्ञान और राग के बीच भेदज्ञान होने का यह लक्षण है किज्ञान में राग के प्रति तीव्र अनादर भाव जागता है, यही ज्ञान और राग के मध्य भेदज्ञान होने का लक्षण है। आत्मा में राग की गंध भी नहीं है, राग के जितने भी विकल्प उठते हैं, मैं उनमें जलता हूँ, वह दुःख, दुःख और दुःख है, विष है, संसार भ्रमण का बीज है। राग के विकल्प में कर्म का बंध होता है ऐसा ज्ञान में पूर्व निर्णय हो तो भेदज्ञान प्रगट होता है। भेदज्ञान के अभाव में जीव संसारी प्रपंच में उलझा रहता है, जिससे निरंतर कर्मों का आस्रव बंध होता है, यही संसार भ्रमण का बीज है। जीव, विकार तथा स्वभाव को एक मान रहा है अत: यथार्थ विचार नहीं कर * पाता। भेदज्ञान द्वारा निज स्वभाव जो निरूपाधि स्वरूप है तथा विकार कृत्रिम है, यह जानने में आता है, अज्ञानी ने तो उन दोनों में एकता मानी है, दया दानादि से धर्म होने की मान्यता अर्थात् मिथ्यादर्शन के बल से वह उन दोनों में * भेद नहीं करता। गाथा-८०-८३ -H -H--- स्व-पर का श्रद्धान होने पर अपने को पर से भिन्न जानने पर स्वयं के आश्रय से संवर निर्जरा रूप दर्शन, ज्ञान, चारित्र का पुरुषार्थ होता है तथा पर के लक्ष्य से होने वाले पुण्य-पाप व आस्रव बंध से छुटकारा होता है। प्रश्न-जब सम्यवर्शन हो गया, सम्यक्त्व की शुद्धि हो गई फिर यह अज्ञान भाव क्यों होता है? समाधान- सम्यक्दर्शन होने के पश्चात् जब तक मोह, राग-द्वेष भाव है तब तक अज्ञान है क्योंकि अज्ञान में ही मोह, राग-द्वेष होते हैं, ज्ञान स्वभाव में, ज्ञानभाव में मोह, राग-द्वेष होते ही नहीं हैं, हैं ही नहीं। जब तक राग भाव है तब तक कर्मों का आस्रव बंध होता है, जो संसार भ्रमण का कारण है। ज्ञान की शुद्धि होने पर मोह, राग-द्वेष भाव विलाता है। प्रश्न-क्या ज्ञान की शुद्धि होने पर मोह, राग-द्वेष होते ही नहीं हैं? समाधान -ज्ञान की शुद्धि होने पर मोह, राग-द्वेष रूप कर्मोदय जन्य पर्यायी परिणमन चलता है, पर ज्ञानी उसे अपना नहीं मानता, अत: कर्मों का बंध नहीं होता। प्रश्न-ज्ञान की शुद्धि का उपाय क्या है? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - विमल सहाव उवन्नं, समल परिनाम पर्जाव नहु दिई। पर्जाव विविह भेयं, न्यान सहावेन पर्जाव विलयंति ॥८१॥ अन्यान दिडिनहु पिच्छदि, अन्यान भाव सयल विलयति। न्यान सहाव उवन्नं, अन्मोयं विमल पर्जाव नहु पिच्छं॥८॥ अन्यान संग विलयं, न्यान सहावेन विन्यान संजुत्तं । न्यानं न्यान उवन्न, न्यान समयं च पर्जाव नहु पिच्छं॥८॥ अन्वयार्थ - (विमल सहाव उवन्न) विमल स्वभाव के प्रगट होने पर (समल परिनाम) राग द्वेषादि भाव (पर्जाव नहु दि8) पर्याय नहीं दिखती है (पर्जाव विविह भेयं) पर्याय विविध प्रकार की होती है, भावों की परिणतियाँ कषायों के निमित्त से अनेक प्रकार की होती हैं (न्यान सहावेन पर्जाव विलयंति) ज्ञान स्वभाव से पर्याय विला जाती है। (अन्यान दिट्टि नहु पिच्छदि) अज्ञान दृष्टि अर्थात् मिथ्या मान्यता में मत SHERSHESHESHES H-21-28
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy