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________________ 卷,长 * ********* श्री उपदेश शुद्ध सार जी द्वारा रचित ५८१ गाथाओं में निबद्ध साधक की साधना को आध्यात्मिक * शिखर की ऊँचाइयों पर ले जाने वाला अलौकिक कांथ है, यही कारण है कि पूज्य 4 श्री ने इस ग्रंथ की टीका साधक संजीवनी नाम से की है। गंध की गाथाओं 2 के भाव के अनुरूप आत्म साधना की प्रमुखता से पूज्य श्री ने सम्पूर्ण विषय 4 वस्तु को सहज सरल भाषा में स्पष्ट किया है । विषय क्रम को सहजता पूर्वक समझने के लिये टीका में आगम अध्यात्म और साधना सम्बंधी प्रश्नोत्तरों का समावेश किया गया है। साधना के मार्ग में आगे बढ़ने वाले साधक को सदगुरु का मार्गदर्शन बहुत बड़ा साधन होता है, अंतर में आने वाली बाधाओं को वह इसी आधार पर दूर कर पाता है। स्वभाव में शांति है विभाव में अशांति है, स्वभाव शाश्वत है विभाव अशाश्वत है, स्वभाव अविनाशी है विभाव उत्पन्न ध्वंसी है, स्वभाव कर्म रहित है विभाव कर्म सहित है । स्वभाव का आश्रय लेकर चलने वाले ज्ञानी साधक को कर्मोदय के निमित्त से रागादि विभाव परिणाम होते हैं किन्तु स्वभाव के आश्रय से साधक सभी विभाव और कर्मों पर विजय प्राप्त कर लेता है । इस प्रकार के उपाय साधक को अमृत स्वरूप होते हैं, उनका उल्लेख इस टीका ग्रंथ में किया गया है अतः साधक को अमृतत्व प्रदान करने वाली इस टीका का नाम साधक संजीवनी स्वत: सिद्ध है। जिनेन्द्र भगवान के उपदेश का शुद्ध सार क्या है ? यह सार तत्त्व बताते हुए श्री गुरु तारण तरण मण्डलाचार्य जी महाराज इसी ग्रंथ की ५२७ वी गाथा में कहते हैं उवएस सुद्ध सारं, उवह परम जिनवर मएन । विलयं च कम्म मलयं, न्यान सहावेन उवएसन तंपि ॥ परम जिनेन्द्र परमात्मा ने भव्य जीवों को यही उपदेश दिया है कि अपने ज्ञान स्वभाव में लीन रहने से सम्पूर्ण कर्म मल क्षय हो जाते हैं, सिद्धि और मुक्ति की प्राप्ति होती है यही उपदेश सार भूत है, उपदेश शुद्धसार भी यही है। पूज्य श्री ने इस ग्रंथ की टीका के सार स्वरूप उपदेश शुद्ध सार का हार्द स्पष्ट करते हुए कहा है “भगवान ने दिव्यध्वनि में कहा है कि आत्मा में अखंड आनंद स्वभाव भरा है, जिसमें ज्ञानादि अनंत स्वभाव भरे हैं, ऐसे चैतन्य मूर्ति निज आत्मा की श्रद्धा करें, उसमें लीनता करें तो उसमें से केवलज्ञान का पूर्ण * प्रकाश अवश्य प्रगट होता है। स्वरूप में लीनता के समय पर्याय में भी शांति और स्वभाव में भी शांति, आत्मा के आनंद रस में शांति ही शाति, अतीन्द्रिय आनंद होता है । इसी का एक-एक मुहूर्त स्थिर होना केवलज्ञान प्रगट करता है । समस्त कर्मों का क्षय होने पर सिद्ध पद होता है, यही उपदेश शुद्ध सार है । अनेक शास्त्रों का सार सम्पादकीय ------- - -- इसमें भरा है, जिन शासन का यह स्तंभ है, साधक को संजीवनी है, कल्पवृक्ष है, द्वादशांग का सार इसमें समाया हुआ है। साधक जीव को ज्ञानमात्र भाव रूप परिणमन में एक साथ अनंत शक्तियां उल्लसित होती हैं, जो स्व-पर प्रकाशक ज्ञान में ज्ञात होती हैं । ज्ञान में ज्ञान मात्र का वेदन होना ही अंतर्मुखता है । निज ज्ञान वेदन के काल में राग तथा पर के वेदन का उसमें अभाव है। श्री गुरु तारण स्वामी कहते हैं कि इस ग्रन्थ उपदेश शुद्ध सार में वही आत्मानुभव का मार्ग बताया है, जिससे कर्मों की निर्जरा पूर्वक मोक्ष की प्राप्ति हो तथा यह उपदेश परम जिनेन्द्र परमात्मा भगवान महावीर बारा उपदिष्ट किया गया है कि अपने ज्ञान स्वभाव में लीन होने से ही कर्मों का क्षय होता है । पर पर्याय के आश्रय से कभी मुक्ति होने वाली नहीं है। जो साधक अपने परम पारिणामिक भाव धुव स्वभाव का आश्रय लेकर एक शुद्ध आत्मा की बारम्बार भावना करता है, वह वीतराग निर्गन्ध साधु होकर क्षपक श्रेणी पर चढ़कर अंतर्मुहूर्त में चार घातिया कर्मों का क्षय करके केवलज्ञानी हो जाता है । फिर चार अघातिया कर्मों का क्षय होने पर संसार से पूर्ण मुक्त शुद्ध सिद्ध परमात्मा हो जाता है, यही उपदेश शुद्ध सार और मुक्तिमार्ग है।" __ आत्म कल्याण हेतु सद्गुरुओं के द्वारा बताये हुए इस मार्ग पर स्वयं चलना, रत्नत्रयमय जीवन बनाना और अजर अमर अविनाशी शाश्वत सिद्ध पद प्राप्त करना यही उपदेश शुद्ध सार का सार है। इस टीका ग्रंथ का प्रकाशन अध्यात्म शिरोमणी पूज्य श्री ज्ञानानंद जी महाराज के मंगलमय सानिध्य में होना था किन्तु नियति और होनहार की बात ही कुछ और होती है। यह प्रकाशन यद्यपि पूज्य श्री के समाधिस्थ होने के पश्चात् हो रहा है फिर भी उनके द्वारा प्रदत्त यह ज्ञान सभी साधकों के साथ निरन्तर वर्त रहा है। सभी भव्य जीव श्री उपदेश शुद्ध सार जी ग्रंथ की इस आध्यात्मिक साधक संजीवनी टीका ग्रंथ का स्वाध्याय चिंतन मनन कर साधनामय जीवन बनायें और अपने आत्म कल्याण का पथ प्रशस्त करें यही मंगल भावना है। साधना स्थली शांतानन्द ध्रुव धाम पिपरिया ब. बसन्त दिनांक : ५.३.२००२ 25 答借力层层剖答者答 जिस समय सम्यकज्ञान रूपी दीपकसे भोगों की निणिता जानने में आती है अति भोग जरा भी मुणकारी नहीं है यह बात अचल रूपसे हदय पर अंकित हो जाती है उस समय भोग और संसार सेवेसण्य होता है। -------E-HEE
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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