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******* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
जबकि सम्यकदृष्टि ज्ञानी ज्ञान दृष्टि के बल से स्वभाव का आश्रय लेकर पर्याय दृष्टि से तो मुक्त होता ही है, साथ ही समस्त अज्ञान जनित भेद विकल्पों 4 की परिधि से ऊपर उठकर अभेद स्वरूपस्थ दशा को उपलब्ध होता है । वह
ज्ञानी जानता है कि दृष्टि का स्वरूप सन्मुख रहना, स्वभाव की स्मृति सुरत रहना संयम है और स्वरूप में लीन रहना तप है । यही कारण है कि ज्ञानी मन और इंद्रियों के विस्तार से अपनी दृष्टि को हटाकर स्वभाव की साधना में ही लीन रहता है।
सम्पूर्ण जगत कहता है कि मन बहुत चंचल है किन्तु मन की चंचलता का मूल कारण क्या है इसे कोई नहीं जानता । सदगुरु तारण स्वामी ने इस रहस्य को स्पष्ट किया है कि मन अपने आप चंचल नहीं होता बल्कि जीव की दृष्टि परोन्मुखी होने से मन चंचल होता है । दृष्टि पर से हटाकर परमतत्त्व परमात्म स्वरूप में लीन कर दें तो फिर मन का अस्तित्व ही कहां रहेगा ? ज्ञानी साधकों की दृष्टि स्वरूप की ओर होती है इसलिये उनका मन शांत और इंद्रियां वश में रहती हैं, साधना के मार्ग में यही वास्तविक संयम कहलाता है । मोक्षमार्गी साधक बाह्य किसी प्रपंच में पड़ना नहीं चाहता, वह अपनी अंतरंग स्थिति से पूरी तरह परिचित होता है और जो-जो भी बाधक कारण उसके जानने में आते हैं उन्हें पुरुषार्थ पूर्वक दूर करता है तभी साध्य की सिद्धि को प्राप्त करता है।
पांच इंद्रियों में रसना इंद्रिय को छोड़कर सभी इंद्रियों के एक-एक कार्य हैं जबकि रसना इंद्रिय के दो कार्य हैं- स्वाद लेना और बोलना । यह दोनों कार्य राग के सदभाव पर निर्भर रहते हैं, इनसे जब तक पूर्ण विरक्ति नहीं होती तब तक स्वरूप लीनता रूप सम्यक्चारित्र नहीं हो पाता । वीतरागी मार्ग के पथिक सम्यकदृष्टि ज्ञानी को चिदानन्द चैतन्य स्वभाव का बहुमान होता है, इसी स्वभाव में लीन होने पर सम्पूर्ण कर्मों की निर्जरा होती है । जिस प्रकार सिंह को देखकर हाथियों के समूह तितर-बितर हो जाते हैं, गरुड़ पक्षी की आवाज सुनकर चंदन के वृक्ष पर लिपटे हुए सर्प भाग जाते हैं, इसी प्रकार चिदानन्द चैतन्य स्वभाव की दृष्टि, ज्ञान विज्ञान घन शुद्ध स्वभाव का स्वानुभूति पूर्ण शंखनाद होने पर आत्मा के संयोग में रहने वाले सम्पूर्ण कर्म निर्जरित क्षय हो जाते हैं, समस्त विकार गल जाते हैं। आत्मा अपने अक्षर, स्वर, व्यंजन, पद और अर्थ के रूप में प्रगट होता है । अक्षर अर्थात् कभी क्षरण न होने वाला अक्षय केवलज्ञान स्वभाव, स्वर अर्थात् सूर्य के समान पूर्ण दैदीप्यमान ममलह
ममल स्वभाव, व्यंजन अर्थात् अनादि अनंत एक रूप रहने वाला ज्ञान-विज्ञान * स्वभाव, पद अर्थात् परमतत्त्व परमेष्ठी स्वरूप शुद्धात्म स्वभाव, अर्थ अर्थात्
प्रयोजनीय सिद्ध स्वरूप, यह सब अंतर के रहस्य चिदानंद चैतन्य स्वभाव की
साधना से ही प्रगट होते हैं। इसी साधना से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय ******* ****
सम्पादकीय Ekkk और अंतराय इन चार घातिया कर्मों का अभाव होकर अनंत चतुष्टय की प्रगटता होती है। अंत में नाम, आयु, गोत्र और वेदनीय इन चार अघातिया कर्मों का क्षय होने पर अनंत काल तक परम आनंदमय एक रस रूप सिद्ध पद प्राप्त होता है।
सिद्ध परमात्मा कर्म रहित शुद्ध स्वरूप में लीन निर्विकार परमानंद स्वरूप हैं, उनके समान ही मैं आत्मा स्वभाव से सिद्ध स्वरूपी शुद्धात्मा हूँ, ऐसे अपने शुद्ध स्वभाव के आश्रय, ममल स्वभाव में रहने से ज्ञानी साधक के भी कर्मोदय जनित विकार गल जाते हैं
आवरन नहु पिच्छाई, ममल सहावेन कम्म संधिपन । आवरण को मत देखो, ममल स्वभाव में रहने से सभी कर्म क्षय हो जाते हैं।
ज्ञानी की यही विशुद्ध दृष्टि अंतर में सुख, सत्ता, बोध, चेतना इन चार प्राणों की प्रगटता में सहायक होती है । आत्म साधना के इस लक्ष्य को पूर्ण करने के लिये सम्यकदर्शन के आठ अंगों का अपूर्व विवेचन करते हुए श्री गुरू महाराज ने सिद्ध परमात्मा के स्वरूप का निर्णय करते हुए अपने सिद्ध स्वरूप का आश्रय लेने की प्रेरणा दी है। जैसे सिद्ध परमात्मा द्रव्य गुण पर्याय से शुद्ध हैं, कर्म रहित हैं, उनके समान ही स्वभाव से मैं आत्मा सिद्ध स्वरूपी शुद्धात्मा अजर-अमर अविनाशी ज्ञान घन स्वरूप हूँ । यही स्वभाव साधना परम तत्त्व परमेष्ठी पद को प्रगट कराने वाली है।।
श्री गुरु तारण तरण मण्डलाचार्य जी महाराज द्वारा विरचित चौदह ग्रंथों को विगत पाँच सौ वर्षों से हमारे पूर्वजों ने सुरक्षित रूप से सम्हाल कर रखा । अतीत में हुए अनेक ज्ञानी साधकों एवं विद्धानों ने कतिपय ग्रंथों पर लेखनी चलाई है और पूज्य गुरुदेव के भावों को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। अध्यात्म शिरोमणी पूज्य श्री ज्ञानानन्द जी महाराज ऐसे विरले सत्पुरुष हुए, जिन्होंने पूज्य गुरुदेव द्वारा अनूभूत अध्यात्म ज्ञान मार्ग को स्वयं के अनुभव पूर्वक जाना और निश्चय-व्यवहार से समन्वित जीवन बनाकर आत्म कल्याण का पथ प्रशस्त किया । बरेली में छह-छह माह की मौन साधना, तीर्थ क्षेत्रों पर वर्षावास और आत्म साधना तथा विभिन्न स्थानों पर रहकर चिंतन और अनुभव के अनमोल रत्न प्राप्त किये, उनका यही ज्ञानानुभवन श्री गुरू महाराज द्वारा विरचित ग्रंथों के साधना परक मूल अभिप्राय को पकड़ने में प्रमुख साधन बना । इसी आधार पर पूज्य श्री ने श्री मालारोहण जी, पंडित पूजा जी, कमल बत्तीसी जी, श्रावकाचार जी, त्रिभंगीसार जी, उपदेश शुद्ध सार जी तथा ममल पाहुइ जी ग्रंथ के ५६ फूलनाओं की सहज सरल भाषा में गुरुवाणी के रहस्यों को यथावत् प्रगट करने वाली अपूर्व टीकायें लिखीं। श्री उपदेश शुद्ध सार जी आचार्य प्रवर श्री मद् जिन तारण स्वामी जी
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