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* ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी
हुए कहा है कि आत्मा अनादि काल से शुद्ध है, यही तीर्थंकर जिनेन्द्र परमात्माओं ने भव्य जीवों को उपदेश दिया है । अपने शुद्धात्म स्वभाव के 4 आश्रय से ही संसार का जन्म-मरण छूटता है, कर्म क्षय होते हैं और मुक्ति की
प्राप्ति होती है। संसार चक्र से मुक्त होकर सिद्ध परमपद को प्राप्त करना ही उपदेश का शुद्ध सार है। जिन भव्य जीवों की काल लब्धि पकती है, होनहार भली होती है वे जिनेन्द्र भगवान के वचनोपदेश रूप मणि रत्न को कर्ण रूपी चोंच में दबाकर उड़ जाते हैं अर्थात् उपदेश का श्रवण मनन करके आत्मानुभवन को उपलब्ध हो जाते हैं।
श्री गुरुदेव ने साधक को सावधान करते हुए कहा है कि धर्म रत्न की प्राप्ति होने के पश्चात् यदि जीव मन की वैभाविक वृत्तियों में आसक्त होता है तो कुमति उत्पन्न होती है और नीच आचरण के कारण धर्म रूपी मणि रत्न छूट भी जाता है किन्तु जो पुरुषार्थी नर मन को अपने ज्ञान स्वभाव में लय कर देते हैं वे रत्नत्रय स्वरूप में रमण करते हैं। सत्य का संग करना ही सत्संग है और क्षणभंगुर असत् नाशवान संयोगों के संकल्प-विकल्प रूप मन का संग करना कुसंग है । मोक्षमार्गी ज्ञानी साधक असत् पदार्थों से दृष्टि हटाकर सत्स्वरूप शुद्धात्मा की साधना आराधना करता है, इसी से वह कर्मों से छूटकर मुक्ति को प्राप्त करता है । आत्म साधना का मार्ग अत्यन्त सूक्षम है इसमें सर्व प्रथम अपने आत्म स्वरूप का अनुभव प्रमाण बोध होना अनिवार्य है क्योंकि इसी के आधार पर साधक साधना के पथ पर अग्रसर होता है। इस मार्ग में भेदज्ञान तत्त्वनिर्णय पूर्वक अंतर शोधन की विशेषता रहती है । संस्कारों को तोड़ने का नाम ही साधना है और यह ज्ञान की दृढ़ता, स्वरूप के लक्ष्य से ही सम्भव होता है। श्री गुरू महाराज स्वयं आत्म साधना के मार्ग के पथिक थे, साधक को साधना करते हुए किस-किस प्रकार की बाधायें आती हैं और उनका निराकरण किस प्रकार किया जाये यह सम्पूर्ण विधि विधान श्री गुरु ने इस ग्रंथ में स्पष्ट किया है।
जनरंजन राग, कलरंजन दोष और मनरंजन गारव साधना में आने वाली ऐसी सूक्ष्म बाधायें हैं जिनका निवारण बहुत सावधानी और दृढ़ता पूर्वक होता है। जनरंजन राग के नौ भेदों का उल्लेख करते हए श्री गरू महाराज ने उनका स्वरूप और जनरंजन से छूटकर जिनरंजन और जिनरंजन से निरंजन होने का पथ प्रशस्त किया है।
पाक्षिक राग (सांसारिक पक्षपात), शरीर राग (शरीर का राग), कुलराग (कुल का राग), सहकार राग (अज्ञान शल्य आदि का सहकार करना), परिणाम राग (अज्ञान भाव पर पर्याय में जुड़ना), रागस्य राग (विकथा व्यसन अब्रह्म आदि की चर्चा करना), अन्मोय राग (अनुमोदना का राग), प्रकृति राग
सम्पादकीय *********** (कर्म प्रकृति का राग), अवयास राग (अभ्यास करने का राग), यह नौ भेद रूप जनरंजन राग संसार परिभ्रमण का कारण है।
पर्याय दृष्टि ही जनरंजन राग आदि की उत्पत्ति में कारण है, इसी से अर्थात् पर्याय दृष्टि से ही कलरंजन दोष और मनरंजन गारव पैदा होते हैं । एक मात्र ज्ञान घन स्वरूप शुद्धात्म स्वभाव के आश्रय से इन रागादि भावों को क्षय किया जाता है। साधना के मार्ग में राग की संधि सबसे बड़ी बाधा है, यही संधि साधक के जीवन में मायाचार जैसे विकारों को जन्म देती है। सदगुरु तारण स्वामी इस बात को जोर देकर कहते हैं कि यदि राग ही करना है तो जिनेन्द्र परमात्मा के कहे अनुसार मैं आत्मा शुद्धात्मा परमात्मा हूँ इसकी अनुमोदना करो, शुद्ध स्वभाव को स्वीकार करो, इसी में परम प्रीति और संतुष्टि का भाव रखो तो स्वभाव के प्रति यह अनुराग संसार के परिभ्रमण से छूटने और मुक्ति को प्राप्त करने में साधन बनेगा ।
स्वभाव दृष्टि ही मोक्षमार्ग है और पर्याय दृष्टि संसार मार्ग है। श्री गुरु तारण स्वामी ने श्री ममलपाहुइ जी ग्रंथ के दर्शन चौविहि फूलना में कहा है -
पर्जब रत्तउ मूढ़ मई, उवर्वन न्बान विलयंतु । पर्याय में रत होना ही मूढता है, इस मूढता पूर्ण बुद्धि को ही मूढ मति कहते हैं । ज्ञान स्वभाव के उत्पन्न होने पर यह मूढता विला जाती है।
श्री कुन्दकुन्दाचार्य देव भी यही बात कहते हैं कि जो जीव अपने रत्नत्रय स्वरूप में स्थित है वह स्व समय है और जो कर्मादि पुदगल प्रदेश में स्थित है वह पर समय है। उन्होंने भी पज्जय मूढा पर समया, पर्याय मूढ को पर समय कहा है । वस्तुतः संसार और मोक्ष में दृष्टि की ही विशेषता है । पर दृष्टि, पर्याय दृष्टि संसार है और स्व दृष्टि, स्वभाव दृष्टि ही मोक्ष है । अनादि काल से परोन्मुखी दृष्टि होने के कारण ही जीव संसार में रुल रहा है, जन्म-मरण कर रहा है। चार गति चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण रूप संसार का कारण एक मात्र मिथ्यात्व अज्ञान है।
सम्यकदृष्टि ज्ञानी को सत्-असत् का, आत्मा-अनात्मा का विवेक होता है, वह स्वभाव पर्याय के भेद को जानता है और पर्याय से दृष्टि हटाकर स्वभाव की साधना में रत रहता है, वह सच्चे देव गुरु शास्त्र, सम्यक्दर्शन ज्ञान चारित्र, संसार शरीर भोग आदि के स्वरूप को सम्यकपने जानता है किन्तु दर्शन मोहांध अज्ञानी जीव सच्चे देव गुरु शास्त्र को यथार्थतया स्वीकार न करके रागी-द्वेषी कुदेव, जड़ अचैतन्य अदेव को देव मानता है, कुगुरु अगुरु को गुरु
और कुशास्त्र अशास्त्र को शास्त्र मानता है । सम्यकदर्शन ज्ञान चारित्र के स्वरूप को भी यथार्थ नहीं जानता, संसार शरीर भोगों को सुखकारी मानता है, इस प्रकार दर्शन मोहांध जीव दृष्टि की विपरीतता होने से संसार में भटकता है,