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________________ गाथा-७४,७५ *-*-*--*--*-*-*-* E-HE-5-1-1-1-1 * ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी * योग्य है, ऐसा दृढ ज्ञान वैराग्यधारी, सम्यक्दृष्टि साधु पद से स्वानुभव की साधना * करता है, इसकी तीव्रता से वीतरागता प्रगट होती है, निर्मल शुद्ध स्वानुभव * झलकता है, उसका सम्यक्दर्शन गाढ़, ज्ञान निर्मल व चारित्र शुद्ध होता है, जिसके ॐ द्वारा घातिया कर्मों का क्षय होकर केवलज्ञान स्वभाव अरिहंत पद प्रगट होता है, स्वभाव की लीनता, वीतराग यथाख्यात चारित्र से अघातिया कर्मों का क्षय होकर सिद्ध पद प्रगट हो जाता है। प्रश्न-इस साधना के लिये क्या करना चाहिये। इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - देवं च परम देवं, गुरुं च परम गुरुं च संदिहूं । धम्म च परम धम्म, जिनं च परम जिनं निम्मलं विमलं ।। ७४॥ तस्सय विन्यान न्यानं, न्यान सहावेन रूव भेय संरुचियं। रुचितंपि उवं विमलं,सम्मत्तं तस्य सुद्ध विमलं च ॥५॥ अन्वयार्थ - (देवं च परम देवं) देव और परम देव अर्थात् अरिहंत और सिद्ध (गुरुं च परम गुरुं) गुरू और परम गुरू अर्थात् साधु, उपाध्याय, आचार्य गुरु और अरिहंत परमगुरु (च संदिट्ट) अपने ही स्वरूप को देखना (धम्मं च परम धम्म) धर्म और परम धर्म अर्थात् निज शुद्ध स्वभाव धर्म और पूर्ण वीतराग ममल स्वभाव परम धर्म (जिनं च परम जिन) जिन और परम जिन अर्थात् चौथे गुणस्थान से जिन संज्ञा होती है और परम जिन अरिहंत सर्वज्ञ केवलज्ञानी परमात्मा (निम्मलं विमलं) अपना निर्मल विमल स्वभाव ही है। (तस्सय) इस प्रकार, ऊपर लिखित (विन्यान न्यानं) भेदविज्ञान के द्वारा (न्यान सहावेन) अपने ज्ञान स्वभाव से (रूव भेय) रूपी पदार्थ का भेद करना (संरुचियं) और उसकी रुचि होना (रुचितंपि उवं विमलं) जहाँ अपने परमात्म स्वरूप विमल स्वभाव की रुचि की जाती है, दृढ़ श्रद्धा लगन होती है (सम्मत्तं तस्य सुद्ध विमलं च) उसका सम्यक्त्व शुद्ध और विमल हो जाता है। विशेषार्थ- देव और परम देव, गुरु और परम गुरु, धर्म और परम धर्म, जिन और परम जिन अपना विमल ममल स्वभाव ही है, ऐसे अपने ही स्वरूप को देखना तथा भेदविज्ञान के द्वारा अपने ज्ञान स्वभाव से रूपी पदार्थ का भेद करना कि जैसे अरिहंत का आत्मा अलग है और परमौदारिक शरीर व बाहरी विभूति, चार अघातिया कर्म अलग हैं यह सब पुद्गलमय हैं। इसी प्रकार इन शरीरादि **** * ** कर्मोदय संयोग से भिन्न मैं शुद्ध चैतन्य परमात्म स्वरूप शुद्धात्मा हूँ, ऐसी दृढ श्रद्धा लगन और रुचि होती है, उसका सम्यक्त्व शुद्ध और निर्मल हो जाता है। निश्चय नय से आत्मा ही अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु है, जिसने आत्मा का अनुभव प्राप्त कर लिया है उसने पांचों परमेष्ठियों का अनुभव प्राप्त कर लिया है, यह पांचों पद आत्मा के ही हैं। रूपी पदार्थ शरीरादि कर्मोदय संयोग यह सब भिन्न हैं, पर हैं, जड़ हैं, पुद्गलमय हैं। जैसे-सिद्ध परमात्मा आठों ही कर्मों से रहित प्रगटपने शुद्धात्मा हैं, वहाँ शरीरादि किसी भी पुद्गल का संयोग नहीं है। वे निरंजन निर्विकार हैं,सम्यक्त्व,ज्ञान, दर्शन, वीर्य, अगुरुलघुत्व, अव्याबाधत्व, सूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व इन आठ प्रसिद्ध गुणों से विभूषित हैं, परम कृतकृत्य परमानंदमय हैं, इसी प्रकार मेरा आत्मा निज स्वभाव भी पूर्ण शुद्ध मुक्त सिद्ध है। ऐसे भेदविज्ञान पूर्वक दृढ़ श्रद्धा लगन और रुचि होने से सम्यक्त्व शुद्ध और निर्मल होता है। वह आत्मा ही देव, देवों का अधीश्वर देव है। कोई नहीं गुरु, आत्मा ही परमगुरु स्वयमेव है। यह आत्मा ही धर्म, धर्मों में कि धर्म महान है। यह आत्मा ही विमल निर्मल,परम जिन भगवान है। यह आत्मा ही शान है, यह ही परम विज्ञान है। विज्ञान वह जिससे उपजता, भेवज्ञान महान है॥ यह आत्मा ही, उस सरोवर का मनोरम तीर है। जिसमें भरा सम्यक्त्व का, कल्याणकारी नीर है॥ (चंचल जी) प्रश्न-यह सम्यक्त्व की शुद्धि क्या है? समाधान - सम्यक्त्व की शुद्धि यह है कि जिसमें भेदविज्ञान पूर्वक दृढ निश्चय श्रद्धान हो जाये, निज स्वभाव की ही लगन रुचि हो जाये । मैं ध्रुवतत्त्व सिद्ध स्वरूपी शुद्धात्मा परम ब्रह्म परमात्मा हूँ, एक समय की चलने वाली पर्याय असत् नाशवान है। जगत का त्रिकालवर्ती परिणमन क्रमबद्ध निश्चित अटल है, इससे मेरा कोई सम्बंध नहीं है, ऐसा दृढ़ निश्चय श्रद्धान अटल विश्वास और निज स्वभाव की रुचि होना ही सम्यक्त्व की शुद्धि है। प्रश्न- यह सम्यक्त्व की शुद्धि होने से क्या होता है? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - 83-8
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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