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गाथा-७१-७३-4-9-7
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---- *****-*---*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
वारापार अनन्तं, अनन्त संसार सरनि विलयं च । वरं विमल सहावं, चिंतामनि सुद्ध अन्मोय सर्वन्यं ॥ १ ॥ ह्रींकारं उववन्नं, उववन्नं नन्त दंसनं न्यानं । वीज चरनंत सौयं, सर्वन्यं विमल न्यान समयं च ॥ २॥ न्यानं पंच उवनं, परम जिनं परम विमल सुभावं । परमं परमानंद, अन्मोयं ममल न्यान सिद्धि संपत्तं ॥७३॥
अन्वयार्थ -(वारापार अनन्तं) यह संसार समुद्र अनंत है (अनन्त संसार) अनन्त संसार का (सरनि विलयं च) परिभ्रमण छूट जाता है, विला जाता है (वरं विमल सहावं) अपने श्रेष्ठ विमल स्वभाव के आश्रय से (चिंतामनि सुद्ध) जो चिंतामणि के समान शुद्ध सिद्ध पद को प्राप्त कराने वाला है (अन्मोय सर्वन्यं) इसी के अनुभव से सर्वज्ञ स्वरूप प्रगट होता है।
(ह्रींकारं उववन्नं) तीर्थंकर पद प्रगट होता है (उववन्नं नन्तदंसनं न्यानं) इसी से अनंतदर्शन, अनंतज्ञान प्रगट होता है (वीर्जं चर नंत सौष्यं) अनंत वीर्य
और अनंत सुख प्रगट होता है (सर्वन्यं विमलन्यान समयंच) यही सर्वज्ञ केवलज्ञान स्वभावी निज आत्मा है।
(न्यानं पंच उवनं) पंच ज्ञान प्रगट हो जाते हैं (परम जिन) परम जिन परमात्मा (परम विमल सुभावं) परम विमल स्वभाव प्रगट हो जाता है (परमं परमानंद) परम परमानंद प्रगट हो जाता है (अन्मोयं ममल न्यान) अपने ममल ज्ञान स्वभाव में लीन रहने से (सिद्धि संपत्तं) सिद्धि की संपत्ति, मुक्त सिद्ध दशा प्रगट होती है।
विशेषार्थ - केवलज्ञान होने से अनंत संसार का परिभ्रमण समाप्त हो जाता है,सर्वज्ञ स्वभाव प्रगट हो जाता है, जिसमें लोकालोक प्रत्यक्ष झलकता है, अपना विमल ममल स्वभाव प्रत्यक्ष दिखता है, तीर्थंकर अरिहंत पद प्रगट हो जाता है, अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतवीर्य, अनंतसुख यह अनंत चतुष्टय स्वरूप प्रगट हो जाता है। यह केवलज्ञान स्वभावी निज आत्मा ही है, इसी से पंच
ज्ञान प्रगट हो जाते हैं। परम जिन, जिनेन्द्र पद प्रगट हो जाता है, अपने विमल * ममल स्वभाव में परम परमानंद में रहते हैं। अपने ममल ज्ञान स्वभाव में लीन
रहने से अघातिया कर्मों का क्षय होकर सिद्धि की संपत्ति पूर्ण मुक्त सिद्ध दशा
प्रगट होती है।
जब योगी द्वितीय शुक्लध्यान के बल से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अंतराय तीनों कर्मों को सर्वथा क्षय कर देता है, तब तेरहवें गुणस्थानवर्ती केवलज्ञानी अरिहंत परमात्मा हो जाता है, उस समय निज आत्मा का प्रत्यक्ष दर्शन व अनुभव होता है। अब तक श्रुतज्ञान के द्वारा परोक्ष ज्ञान था। अब केवलज्ञान में प्रत्यक्षज्ञान के द्वारा प्रत्यक्ष अमूर्तीक आत्मा का ज्ञान व अनुभव होता है । घातिया कर्मों के क्षय होने से अनंत चतुष्टय, अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अनंतवीर्य, अनंतसुख प्रगट हो जाता है, सर्वज्ञ स्वभाव तीर्थंकर पद प्रगट हो जाता है। जिसमें तीन काल और तीन लोक के समस्त द्रव्य और उनकी त्रिकालवी पर्यायें झलकती हैं। पंचज्ञानमयी परम जिन पद प्रगट हो जाता है। परम परमानंद स्वभाव में लीन रहते हैं, अपने ममल ज्ञान स्वभाव में लीन रहने से अघातिया कर्मों का क्षय होने से सिद्धि की संपत्ति सिद्ध पद प्रगट हो जाता है, जहाँ सादि अनंत काल तक अपने अक्षय परमानंद स्वभाव में यह आत्मा मगन रहता है ।
प्रश्न - यह अरिहंत और सिद्ध पद प्राप्त करने का मार्ग क्या है?
समाधान - शुद्ध आत्मा का अनुभव करना ही अरिहंत सिद्ध पद प्राप्त करने का मार्ग है, इसके बाधक मिथ्यादर्शन मिथ्याज्ञान मिथ्याचारित्र हैं। अनंतानुबंधी कषाय और दर्शन मोहनीय कर्म के उपशम या क्षय से एक ही साथ सम्यकदर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र प्रगट हो जाते हैं, यह तीनों ही आत्मा के गुण हैं। ज्ञान और चारित्र एकदेश झलकते हैं इनका क्रमिक विकास होता है। इनके पूर्ण प्रकाश के लिये अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान व संज्वलन कषाय का उपशम या क्षय करना होता है। जैसे-जैसे स्वानुभव का अधिक अभ्यास होता है वैसे-वैसे कषाय की मलिनता कम होती जाती है, तब ज्ञान निर्मल और चारित्र ऊँचा होता जाता है। श्रावक पद में देशचारित्र होता है, साधु पद में सकलचारित्र होता है।
चारों गतियों के क्षणिक पद सब त्यागने योग्य हैं. सम्यकदृष्टि ज्ञानी इन्द्रियों के सुख को आकुलता रूप, पराधीन नाशवान पापबंधकारी अतृप्तिकारी हेय समझ चुका है; इसलिये वह भोग विलास के हेतु से चक्रवर्ती पद, नारायण पद, बलभद्र पद, प्रतिनारायण पद, राजपद, श्रेष्ठ पद, इंद्रपद आदि नहीं चाहता है, उसके भीतर पूर्ण वैराग्य है कि सर्व ही आठकर्मों का संयोग मिटाने योग्य है, सब ही रागादि भाव त्यागने योग्य हैं, सर्व ही शरीर व भोग सामग्री का संयोग दूर करने
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