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*********** श्री उपदेश शुद्ध सार जी
गाथा-६९,७०*****-*-*-*-*-*
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विषय-कषाय गलते हैं। आत्मा का शुद्ध स्वरूप सिद्ध परमात्मा के समान है, * सत्ता हर एक आत्मा की भिन्न-भिन्न है। शुद्ध आत्मा के अनुभव की महिमा * अपूर्व है, इसी से ही कर्मों का क्षय होता है और केवलज्ञान प्रगट होता है।
कर्मबंध से छूटने का उपाय या भवसागर से पार होने का उपाय रत्नत्रय । धर्म है, इसके सिवाय दूसरा कोई उपाय नहीं है। निश्चय रत्नत्रय साक्षात् मोक्षमार्ग
है यही उपादान कारण है । व्यवहार रत्नत्रय उपादान के प्रकाश के लिये बाहरी निमित्त है। कार्य की सिद्धि, उपादान और निमित्त दोनों कारणों के होने पर होती है। यह अपना आत्मा द्रव्य स्वभाव से परम शुद्ध है ज्ञाता दृष्टा है, अनंत वीर्य व अनंत सुख का सागर है, परम वीतराग है, सर्व अन्य द्रव्यों की सत्ता से रहित है।
मैं सिद्ध के समान शुद्ध निरंजन निर्विकार हूँ, मैं पूर्ण ज्ञान दर्शनवान हूँ, पूर्ण आत्मवीर्य का धनी हूँ, परम आनंदमय अमृत का अगाध सागर हूँ, मैं परम कृत कृत्य हूँ, जीवन मुक्त हूँ, ऐसा दृढ़ अटल श्रद्धान ज्ञान होने पर सारे विषय-कषाय कर्म मल गल जाते हैं। शुद्धात्मानुभव की स्थिरता से ही सारे कर्म क्षय होते हैं और अनंत चतुष्टयमयी केवलज्ञान प्रगट होता है।
इसकी साधना के लिये आगे गाथा कहते हैंउवं नमापि सुद्ध, उवलयं लज्य नंत ससरूवं । अवकास दान विधि, अवकास विमल केवलं न्यानं ॥ ६९ ॥ अन्मोय नंतनंतं, अनन्त चतुस्टं च विमल ससरूवं । आलंवं अवलंवं, अनन्तानन्त सुदिस्टि विमलं च ॥ ७॥
अन्वयार्थ - (उवं नमापि सुद्ध) मैं ऊँ परमात्म स्वरूप शुद्ध स्वभाव को नमस्कार करता हूँ (उवलष्यं) उपलब्ध होता है, अगोचर है (लष्य) दिखाई देता, गोचर होता है, अनुभूति में आता है (नंत ससरूवं) अपना आत्म स्वरूप जो चतुष्टयमयी है (अवकास दान विधि) निज स्वरूप में जितनी स्थिरता होती है,
गुणस्थान बढ़ता जाता है अवकाश अर्थात् ठहरना, दान अर्थात् आत्मबल बढ़ना, * पुरुषार्थ करना, अभय दान देना, विधि अर्थात् बढ़ता है (अवकास विमल केवलं * न्यान) ममल स्वभाव में रहने से केवलज्ञान प्रगट होता है।
(अन्मोय नंतनंतं) अनंत गुणों के धारी आत्मा का आश्रय लेने, अनुमोदना करने से (अनन्त चतुस्टं च विमल ससरूवं) अनंत चतुष्टयमयी अपना विमल स्वरूप झलकने लगता है, प्रगट हो जाता है (आलंवं अवलंव) यही आलम्ब है.
यही अवलंबन है (अनन्तानन्त सुदिस्टि विमलं च) विमल अनंत केवलज्ञान, केवलदर्शन प्रगट हो जाता है।
विशेषार्थ - अपना आत्म स्वरूप जो चतुष्टयमयी परमानंद परमात्म स्वरूप अगोचर है, जब अनुभूति में आता है और उसमें जितनी स्थिरता होती है, उतना गुणस्थान बढ़ता जाता है अभयपना आता है। अंतर्मुहूर्त स्व स्वरूप में रहने से केवलज्ञान प्रगट होता है, ऐसे परमात्म स्वरूप निज शुद्ध स्वभाव को मैं नमस्कार करता हूँ, जिसके आलम्बन अवलंबन से अनंत चतुष्टयमयी स्वस्वरूप अनंत गुण निधान अनंतानंत लोकालोक का प्रकाशक केवलज्ञान, केवलदर्शन प्रगट हो जाता है।
अपने आत्मा को परमात्मा के समान परम रुचि व परम आनंद के साथ ध्याने से ही अरिहंत पद होता है, जहाँ वीतरागता सहित अनंतज्ञान सुख आदि प्रगट हो जाते हैं। ऊँ वाचक शुद्ध स्वभाव परमब्रह्म परमात्मा का आलंबन, अवलंबन ही केवलज्ञान स्वरूप की प्रगटता का कारण है। इस सहारे से जब स्वयं आत्मा, आत्मा में लय होता है, तब अनंतानंत लोकालोक का प्रकाशक केवलज्ञान प्रगट हो जाता है जिसे मैं तथा समस्त जगत भी नमन करता है।
सम्यक्दर्शन के प्रताप से ज्ञानी को जगत के पदार्थों का यथार्थ ज्ञान होता है कि छह द्रव्यों से यह जगत भरा है। सर्व ही द्रव्य निश्चय से अपने-अपने स्वभाव में कल्लोल करते हैं। यद्यपि संसारी जीव, पुद्गल के संयोग से अशुद्ध है व नर नारक तिर्यंच तथा देव के शरीर में नाना प्रकार दिखते हैं, तो भी ज्ञानी उन सब जीवों को द्रव्य के स्वभाव की अपेक्षा शुद्ध एक रूप ज्ञानानंद स्वभावी परम निर्विकारी देखता है, इस ज्ञान के कारण उसे कोई आश्चर्य नहीं भासता है। वह छहों द्रव्यों के मूलगुण व पर्यायों के स्वरूप को केवलज्ञानी के समान यथार्थ शंका रहित जानता है। अपने आत्मा की सत्ता को अन्य आत्माओं की सत्ता से भिन्न जानता है तो भी स्वभाव से सर्व को व अपने आत्मा को एक समान शुद्ध देखता है, इसी ज्ञान के प्रताप से उसके भीतर सहज वैराग्य भी रहता है कि एक अपना शुद्ध आत्मा ही सार है, उत्तम है। अपने सहज शुद्ध स्वभाव की साधना आराधना सहित लीनता से अनंत चतुष्टयमयी केवलज्ञान स्वरूप प्रगट हो जाता है।
प्रश्न-केवलज्ञान होने से क्या होता है? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं -
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