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________________ 大地 *-*-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी राग-द्वेष रूप भाव कर्म, ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्म व शरीरादि नोकर्म का क्षय होता है। पर्याय में शुद्धता होकर पूर्ण केवलज्ञान स्वरूप परमात्म पद प्रगट होता है। जो पर पदार्थ में अहंकार व ममकार छोड़कर एकाग्रता के साथ अपने शुद्धात्म स्वरूप का अनुभव करता है वह नये कर्मों का संवर व पुराने कर्म मलों को क्षय करता है। ज्ञान दर्शन लक्षण वाला शाश्वत एक आत्मा मेरा है, शेष सब संयोग लक्षण वाले भाव मुझसे बाह्य हैं। त्रिकाल निरुपाधि स्वभाव वाला होने से निरावरण ज्ञान दर्शन लक्षण से लक्षित ऐसा जो कारण परमात्मा वह मेरा निज स्वभाव है। जो शरीरादि की उत्पत्ति में हेतुभूत द्रव्यकर्म, भाव कर्म रहित होने से एक है और वही कारण परमात्मा समस्त क्रियाकांड के आडंबर के विविध विकल्प रूप कोलाहल से रहित, सहज शुद्ध ज्ञान चेतना को अतीन्द्रिय रूप से भोगता हुआ, शाश्वत रहकर मेरे लिये उपादेय रूप से रहता है। जो शुभाशुभ कर्म के संयोग से उत्पन्न होने वाले शेष बाह्य आभ्यंतर परिग्रह, वे सब निज स्वरूप से बाह्य हैं ऐसा मेरा निश्चय है। मेरा परमात्म स्वरूप शाश्वत है, कथंचित् एक है, सहज परम चैतन्य चिंतामणि है, सदा शुद्ध है और अनंत निज दिव्य ज्ञान दर्शन से समृद्ध है। ऐसे सत्श्रद्धान अटल विश्वास सहित अपने स्वरूप में स्थित रहने से तीनों प्रकार के कर्म क्षय होते हैं, पर्याय शुद्ध होती है और केवलज्ञान स्वभाव परमात्म पद प्रगट होता है। आत्मा का स्वरूप निश्चय से परम शुद्ध है। ज्ञान इसका मुख्य असाधारण लक्षण है। ज्ञान में वह शक्ति है कि एक ही समय में यह सर्व लोक के छह द्रव्यों को उनकी पर्यायों को लिये हुए तथा अलोक को एक ही साथ क्रम रहित जैसे का तैसा जान सके। इसी तरह आत्मा में वे सब गुण हैं जो सिद्ध भगवान में प्रगट हो जाते हैं। स्वभाव से आत्मा सिद्ध के समान केवलज्ञान स्वभावी है, तत्त्वज्ञानी साधक महात्मा जिस पद का रुचिवान होता है उसी पद को ध्याता है। धर्मानुरागी, पंच परमेष्ठी की भक्ति, अनुकम्पा, परोपकार, शास्त्र पठन आदि शुभ भावों के भीतर वर्तता है क्योंकि शुद्धोपयोग में अधिक नहीं ठहर सकता है, आत्मवीर्य की कमी है तब अशुभ भावों से बचने के लिये शुभ भावों में रहते हुए भी ज्ञानी उनसे विरक्त ६९ रहता है। परमाणु मात्र भी रागभाव बंध का कारण है, ऐसा जानता है। गाथा ६७, ६८-*-*-*-* निर्विकल्प समाधि व स्वानुभव के आलाप के लिये एक अपने ही आत्मा के भीतर आत्मा के द्वारा अपने ही आत्मा को ध्याता है, इससे पूर्व कर्म बंध निर्जरित क्षय हो जाते हैं। इस तरह जो ज्ञानी व विरक्त पुरुष संसार की सर्व प्रपंचावली से पूर्ण विरक्त होकर आत्म ध्यान करते हैं, वे परमानंद के अमृत का पान करते हैं, वे ही विवेकी पंडित हैं, वे ही परम ऐश्वर्य वान हैं, रत्नत्रय की अपूर्व संपदा के धनी हैं, सम्यक्दर्शन ज्ञान चारित्र की एकता में लवलीन हैं, वे ही भाग्यवान हैं, वे केवलज्ञान स्वरूप परमात्म पद को प्राप्त करते हैं। इसी की विशेषता रूप आगे गाथा कहते हैं. अयं च अप्पसरूवं, अयं च विषम कम्म गलियं च । अयं च सुद्ध सरूवं, अयं च सुद्ध ममल मिलियं च ॥ ६७ ॥ उत्पाद्य नंतनंतं, उवर्वनं न्यान सुद्ध सहकारं । ऊ ऊर्ध संसुद्धं, ऊर्धं ससहाव कम्म गलियं च ॥ ६८ ॥ अन्वयार्थ (अयं ) मैं यही (च) और (अप्प सरूवं) आत्म स्वरूप है (अयं ) मैं इसी से (च) और (विषम) पांच इंद्रियों के विषय भोग (कम्म गलियं च) और कर्म भी गल जाते हैं (अयं) इसी (च) और, तो (सुद्ध सरूवं) शुद्ध स्वरूप है (अयं) इसी (च) और (सुद्ध) शुद्ध (ममल) ममल स्वभाव (मिलियं च) मिल जाता है, मिला देता है। (उत्पाद्य) प्रगट होता है, पैदा होता है (नंतनंतं) अनंत चतुष्टयमयी स्वरूप (उववनं) उदय होता है, अनुभूति में आता है (न्यान) केवलज्ञान (सुद्ध सहकारं ) शुद्ध स्वभाव की सहायता से (ऊर्धं) ऊर्ध्वगामी (ऊर्ध) श्रेष्ठ (संसुद्धं) परम शुद्ध है (ऊर्ध) श्रेष्ठ (ससहाव) स्व स्वभाव से (कम्म गलियं च) कर्म गल जाते हैं। विशेषार्थ यही केवलज्ञान स्वभाव अपने आत्मा का स्वरूप है, इसी स्वरूप में रमण करने से विषय और कर्मों का क्षय होता है। यही तो परमात्मा का शुद्ध स्वरूप है, इसी शुद्ध ममल स्वरूप में रहने से परमात्म पद मिल जाता है, इसी से अनंत चतुष्टय स्वरूप केवलज्ञान प्रगट होता है। अपने शुद्ध स्वभाव के सहकार से, जो ऊर्ध्वगामी श्रेष्ठ स्वभाव परमशुद्ध है, अपने स्व स्वभाव में रहने से सब कर्म गल जाते हैं और केवलज्ञान ज्योति प्रगट होती है। आत्मा के शुद्ध स्वरूप के ध्यान से ही कर्मों का क्षय होता है, - - ·索尔
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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