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-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
लिये मेघ के समान है तथा समस्त श्रुत के प्रकाश करने के लिये दीपक है और पवित्र शासनमय है। इस प्रणव से अति निर्मल शब्द रूप ज्योति अर्थात् केवलज्ञान प्रगट हुआ है। यह सौ इन्द्रों से पूजित महा प्रभाव सम्पन्न कर्मरूपी वन को दग्ध करने के लिये अग्नि के समान महान परम तत्त्व है, इसका आराधन, चिंतवन, ध्यान करने से परमात्म पद प्राप्त होता है ।
जो संसारी आत्मा, शुद्ध आत्मा का अनुभव पूर्वक ध्यान करता है वह मुनि साधु पद में अंतर बाहर निर्ग्रन्थ होकर पहले धर्म ध्यान फिर शुक्ल ध्यान को ध्याता है। वह शुक्ल ध्यान के प्रताप से पहले अरिहंत होता है फिर सर्व कर्म मल जलाकर सिद्ध होता है। ऊर्ध्व गमन स्वभाव से लोक के अग्र भाग में जाकर सिद्ध आत्मा ठहरता है। सिद्धों के समान जो कोई मुमुक्षु अपने आत्मा को निश्चय से शुद्ध आत्म द्रव्य मानकर व राग-द्वेष त्यागकर निज स्वरूप में मग्न हो जाता है वही एक दिन शुद्ध पद को प्राप्त अरिहंत सिद्ध हो जाता है।
केवलज्ञान होते ही ज्ञानावरणादि चार घातिया कर्मों के क्षय हो जाने पर छद्मस्थज्ञान नहीं रहता है। ज्ञान मर्यादा रूप नहीं होकर अमर्यादा रूप अनंत हो जाता है। मन का संकल्प-विकल्प नहीं होता है। दुष्ट कर्म मल नाश हो जाता है। अक्षरमय वाणी नहीं होती, मेघ की गर्जना के समान निरक्षरी ध्वनि निकलती है। भूख प्यास भय पसीना आदि नहीं होता, नख केश नहीं बढ़ते, शरीर का सर्व मल दूर हो जाता है, भद्र मनोज्ञ, परम सुंदर, दर्शनीय हो जाता है। स्फटिक के समान तेजस्वी शरीर हो जाता है, सात धातुयें नहीं रहती हैं, सब दोषों का क्षय हो जाता है।
अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतदान, अनंतलाभ, अनंतभोग, अनंत उपभोग, अनंतवीर्य, क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक चारित्र यह नौ केवल लब्धियाँ तथा अनंत सुख प्राप्त हो जाता है। इन दस को चार अनंत चतुष्टय में गर्भित करके अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतवीर्य, अनंतसुख को यहाँ प्राप्त करना कहा है। सम्यक्त्व व चारित्र को सुख में गर्भित किया है क्योंकि उनके बिना सुख नहीं होता है तथा अनंत दानादि पांच को अनंतवीर्य में गर्भित किया है क्योंकि वे उसी की परिणतियाँ हैं, इस तरह अनंत चतुष्टय में दशों गुण गर्भित हैं। सयोग केवली अवस्था में अरिहंत धर्मोपदेश करते हैं। उनकी दिव्यवाणी का अद्भुत प्रकाश होता है। जिसका भाव सर्व ही उपस्थित देव मानव व पशु समझ लेते हैं। सबका भाव निर्मल आनंदमय व संतोषी हो जाता है, उसी वाणी को धारणा में लेकर चार
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गाथा ६६ ******
ज्ञानधारी गणधर मुनि आचारांग आदि द्वादश अंगों का निरूपण करते हैं, जो द्वादशांग वाणी- जिनवाणी कहलाती है।
यह तेरहवां गुणस्थान आयु पर्यन्त रहता है। केवली समुद्घात में लोकाकाश प्रमाण आत्मप्रदेश फैलते हैं, जब इतना काल आयु शेष रहता है जितना काल अ, इ, उ, ऋ, लृ इन पांच लघु अक्षरों के बोलने में समय लगता है तब अयोग केवली जिन हो जाते हैं। अंत के दो समय में चार अघातिया कर्मों की ८५ प्रकृतियों का क्षय करके सिद्ध व अशरीरी होकर सिद्ध क्षेत्र में जाकर विराजते हैं ।
प्रश्न- इस केवलज्ञान स्वरूप परमात्म पद को प्राप्त करने का उपाय क्या है ?
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इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैंममात्मा सुकिय सुभाव, ममलं दिस्टिच अन्मोय सहकार।
आदि अनादि सुद्धं, अन्मोयं चिपति कम्म तिविहं च ॥ ६६ ॥ अन्वयार्थ (ममात्मा) मेरा आत्मा (सुकिय) स्वकृत, अपने आप स्वाभाविक (सुभावं स्वभाव से (ममलं दिस्टि) ममल दृष्टि अर्थात् शुद्ध दृष्टि है (च) और (अन्मोय) अनुमोदना, आलंबन (सहकार) सहकार करना, सहयोग, स्वीकार (आदि अनादि सुद्धं) आत्मा अनादि काल से शुद्ध है अर्थात् जब से है और जब तक रहेगा, स्वभाव से शुद्ध ही है (अन्मोयं) इसका आलंबन, आश्रय लेने से (षिपति) क्षय होते हैं (कम्म तिविहं च) तीनों प्रकार के कर्म द्रव्य कर्म, भाव कर्म, नोकर्म ।
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विशेषार्थ केवलज्ञान स्वरूप परमात्म पद को प्राप्त करने के लिये साधक को इसका आलंबन लेना चाहिये, अनुमोदना करना चाहिये, स्वीकार करना चाहिये कि मेरा आत्मा स्वयं केवलज्ञान स्वभावी परमात्मा है। स्वभाव से यह आत्मा अनादिकाल से शुद्ध है, वर्तमान पर्याय में अशुद्धि है। अपने ममल केवलज्ञान स्वभाव का अश्रय लेने से पर्याय शुद्ध होती है और तीनों प्रकार के कर्म क्षय होते हैं।
ज्ञानी साधक को इस बात को स्वीकार करना चाहिये, दृढ़ अटल श्रद्धान रखना चाहिये कि मेरा आत्मा स्वभाव से शुद्ध ममल केवलज्ञान स्वभावी है। वर्तमान पर्याय में अशुद्धि है, अनादि से कर्मों का निमित्तनैमित्तिक संयोग सम्बंध है परंतु बंधने छूटने की अपेक्षा सादि है। कर्मों का नाश अपने स्वभाव में रमण करने से ही होगा। अपने शुद्ध ममल स्वभाव में रमने से आनंद होता है तथा
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