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श्री उपदेश शुद्ध सार जी
गाथा-६४,६५HHHHHH-2
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हैं। अनंतानंत पदार्थों को जानने की शक्ति केवलज्ञान की एक समय की पर्याय में मयी (सु दिस्टि विमलं च) अपने विमल ममल स्वभाव में ही सुदृष्टि रहती है (भद्र होती है।
मनोयं सुद्ध) भद्र मनोज्ञ शुद्ध स्वभाव से (भद्र जातीय) स्वाभाविक स्वरूप के केवलज्ञान होने से आत्मा द्रव्य गुण पर्याय तीनों से शुद्ध परमात्मा हो जाती प्रगट होने से (मुक्ति गमनं च) मुक्ति में गमन करते हैं। है और संसार का सारा माया, मोह, गारव विला जाता है।
(ऊवं ऊर्ध सहावं) परमात्म स्वरूप श्रेष्ठ स्वभाव है (ऊध) श्रेष्ठ (ऊध) केवलज्ञान होने पर अनंत ज्ञान दर्शन हो जाता है, जिसमें लोकालोक ऊर्ध्वगामी (च) और (परमिस्टि) पंच परमेष्ठी स्वरूप (संसुद्ध) परम शुद्ध है प्रतिबिम्बित होता है, यह आत्मा का ध्रुव निश्चय स्वभाव है। यही ध्रुव निश्चय (ऊवंकारं च दि8) परमात्म स्वरूप को देखने अनुभव करने से (विन्यानं दर्सए) शाश्वत स्वभाव परम केवलज्ञान है।
भेदविज्ञान ज्योति प्रगट होती है (पद विंदं) जिससे अपने पद, सिद्ध स्वरूप की चौथे से बारहवें गुणस्थान तक जिन संज्ञा है फिर बारहवें के अंत में मोहनीय, अनुभूति होती है, सिद्ध पद प्रगट होता है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण व अंतराय इन घातिया कर्मों का क्षय होने से अरिहंत
विशेषार्थ- केवलज्ञानी अरिहंत परमात्मा ही वास्तव में भद्र मनोज्ञ परम सयोग केवली हो, तेरहवें गुणस्थान को प्राप्त होते हैं तब वे जिनेन्द्र कहलाते हैं। सुन्दर शुद्ध स्वभाव के धारी हैं। अपने विमल, ममल स्वभाव में लीन रहते हैं, यहाँ चारों घातिया कर्मों का अभाव हो जाता है। समस्त दोषों का क्षय हो जाता है। उनकी सुदृष्टि में तीन लोक तीन काल के समस्त जीव, समस्त द्रव्य और उनकी
१. भूख, २. प्यास, ३. भय, ४. राग, ५. द्वेष, ६. मोह, ७. चिंता, त्रिकालवर्ती अनंतानंत पर्यायें झलकती हैं। अनंत चतुष्टय स्वरूप प्रगट होने से ८. जरा, ९. रोग, १०. मरण, ११. पसीना, १२. खेद, १३. मद, १४. रति, परमानंद का पान करते हुए वह मुक्ति में गमन करते हैं। १५. आश्चर्य, १६. जन्म, १७. निद्रा, १८. विषाद । यह अठारह दोष संसारी
पंच परमेष्ठी पद में सबसे श्रेष्ठ पद अरिहंत पद को प्राप्त कर लिया है, परम जीवों में पाये जाते हैं, केवलज्ञानी परमात्मा में इन अठारह दोषों का अभाव हो0 शुद्ध स्वभाव में अपने पूर्ण ब्रह्म स्वरूप को देखते हैं, भेदविज्ञान ज्योति प्रगट जाता है।
2 होने से निरंतर उर्वकार स्वरूप में लीन रहते हैं। आयु कर्म के क्षय होने पर ऊर्ध्व अतीन्द्रिय स्वभाव वाले, शुद्ध सद्भूत व्यवहार से अनंत ज्ञान, अनंत गमनकर सिद्ध पद में प्रतिष्ठित हो जाते हैं। दर्शनादि शुद्ध गुणों के आधारभूत होने के कारण विश्व को लोकालोक को निरंतर
केवलज्ञान आत्मा का परिपूर्ण स्वभाव है, यही परमात्म स्वरूप है, पंच जानते हुए और देखते हुए भी मन की प्रवृत्ति का (भाव मन परिणति का) अभाव परमेष्ठी पद में सबसे श्रेष्ठ अरिहंत पद है। अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, होने से इच्छा पूर्वक वर्तन नहीं होता इसलिये वे भगवान केवलज्ञानी रूप से साधु यह पंच परमेष्ठी पद हैं। भेदविज्ञान द्वारा अपने सत्स्वरूप का बोध करके प्रसिद्ध हैं, परम वीतराग हैं, परमानंद में अपने द्रव्य गुण पर्याय से शुद्ध परमात्मा जो आत्मा अपने स्वरूप की साधना करता है वह साधुपद में इस अरिहंत पद को होते हैं।
पाता है। यहाँ से आयु के अंत होने पर ऊर्ध्व गमन करके सारे कर्म मलों से रहित और विशेषता के लिये आगे गाथा कहते हैं -
होकर अशरीरी सिद्ध पद प्राप्त करता है, जो आत्मा का अपना शाश्वत अविनाशी नंतानंत सुदिटुं, नंत चतुस्टय सु दिस्टि विमलं च ।
पद है। भद्र मनोयं सुद्ध, भद्र जातीय मुक्ति गमनं च ॥ ६४ ॥
ऊँ स्वरूप में अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु यह पांचों परमेष्ठी
गर्मित हैं तथापि मुख्यता अरिहंत व सिद्ध परमात्मा की है। जगत में यह ही श्रेष्ठ ऊवं ऊर्थ सहावं, ऊर्य ऊर्य व परमिस्टि संसुद्ध।
स्वभावधारी परमेष्ठी परम वीतराग हैं। जो भव्य जीव सम्यक्दृष्टि भेदविज्ञानी ऊवंकारं च दिटुं, विन्यानं दर्सए पद विंदं ॥६५॥ अपने परमात्म स्वरूप का चिंतवन ध्यान करता है, उसको इस उवंकारमयी अन्वयार्थ - (नंतानंत सुदि8) अनंतानंत पदार्थों को देखते जानते हैं ।
परमात्म पद का अनुभव होता है। (नंत चतुस्टय) अनंत चतुष्टय-अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अनंतसुख, अनंतवीर्य
यह उवंकार स्वरूप प्रणव, दु:ख रूपी अग्नि की ज्वाला को शांत करने के #HHHHHHHk
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