SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 66
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ त्र E-E-SHES ********** श्री उपदेश शुद्ध सार जी वीतरागी ज्ञाता भाव ही रह गया, इस स्थिति में मनः पर्यय ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम होकर मन:पर्यय ज्ञान प्रगट होता है, जिसके रिजुमति-विपुलमति भेद होते हैं। इनके प्रगट होने पर मन विलय हो जाता है, सारे कर्म मल क्षय हो * जाते हैं और तीनों ही मिथ्यात्व भाव, दर्शन मोहनीय विला जाते हैं। शुद्ध ज्ञान स्वरूप गुण-गुणी के भेद से भी रहित है तथा सुख सागर है। इसी के ध्यान से केवलज्ञान प्रगट होता है। प्रश्न- केवलज्ञान कैसे प्रगट होता? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - रीनं संसार सुभावं, रीनं अन्मोय अन्यान विलयंति। ऐकार नंतनंतं, ऐ उववन्न मुक्ति गमनं च ॥ ११ ॥ अन्वयार्थ- (रीनं) क्षीण होना, रीत जाना, खाली हो जाना (संसार सुभावं) संसार स्वभाव अर्थात् संसार परिभ्रमण, जन्म-मरण का चक्र, सुख-दुःख भोगना (रीनं) क्षीण होना (अन्मोय) आलंबन, अनुमोदना (अन्यान विलयंति) अज्ञान विला जाता है (ऐकार) इस प्रकार (नंतनंतं) अनंत चतुष्टय स्वरूप केवलज्ञान (ऐ) इसके (उववन्न) प्रगट होना, पैदा होना (मुक्ति गमनं च) मुक्ति में गमन होता है। विशेषार्थ- संसार स्वभाव के क्षीण होने अर्थात् विभाव परिणमन के रुकने और अज्ञान के सर्वथा अभाव होने से अनंत चतुष्टय स्वरूप केवलज्ञान प्रगट होता है तथा केवलज्ञान होने से मोक्ष निश्चित होता है। निज शुद्धात्म स्वभाव में अड़तालीस मिनिट रहने से केवलज्ञान प्रगट होता है जहाँ संसार परिभ्रमण समाप्त हो जाता है, अज्ञान भाव सर्वथा विला जाता है। मोह का क्षय होने से और ज्ञानावरण, दर्शनावरण तथा अंतराय इन तीनों कर्मों का एक साथ क्षय होने से केवलज्ञान उत्पन्न होता है। केवलज्ञान होने पर भाव मोक्ष हुआ कहलाता है। अनंत चतुष्टय के प्रगट होने से यह अरिहंत दशा है और आयुष्य की स्थिति पूरी होने पर चार अघातिया कर्मों का अभाव होकर द्रव्य * मोक्ष होता है यही सिद्ध दशा है। मोक्ष केवलज्ञान पूर्वक ही होता है। यदि यह आत्मा दो घड़ी, पुद्गल द्रव्य से भिन्न अपने शुद्ध स्वरूप का अनुभव करे उसमें लीन रहे, परीषह आने पर भी न डिगे तो घाति कर्म का नाश करके केवलज्ञान उत्पन्न करके मोक्ष को प्राप्त हो । आत्मज्ञान आत्मानुभव का ऐसा महात्म्य है। ***** * ** गाथा-६१-६३ *********** मोक्ष का सुख आत्मा का पूर्ण स्वाभाविक अतीन्द्रिय सुख है, जो सिद्धों को सदा काल निरंतर अनुभव में आता है। ऐसे सुख का उपाय भी आत्मा के अतीन्द्रिय आनंद का अनुभव करना है। सुख स्वभावी आत्मा ही पूर्ण सुखी होता है। आत्मीक सुख का स्वाद पाने का उपाय अपने ही शुद्ध आत्मा में निर्विकल्प समाधि का होना है। सम्यक्त्वी आत्मज्ञानी को स्वानुभव करने की रीति मिल जाती है। इसी को मोक्ष का उपाय जानकर सम्यक्त्वी बार-बार स्वानुभव का अभ्यास करके आत्मानंद का भोग करता है। यदि कोई सम्यक्त्वी निर्ग्रन्थ मुनि हो व वजर्ऋषभनाराच संहनन का धारी हो और उसका स्वानुभव यथायोग्य एक अंतर्मुहूर्त तक जमा रहे तो वह चार घातिया कर्मों का क्षय करके परमात्मा हो जावे। एक साथ ही अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख, अनंतवीर्य का प्रकाश कर ले। प्रश्न- केवलज्ञान होने पर क्या होता है? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - तत्काल कम्म विलयं, तत्कालंराय विषयमयगलियं। थानंत नंतनंतं, थानं सुखं च गारवं विलयं ॥ १२॥ दंसन अनंत दस, दंसन दंसेइ लोय अवलोयं ।। धुर्वच निस्वय सहावं, धुव निस्वय परम केवलंन्यानं॥ १३ ॥ अन्वयार्थ-(तत्काल कम्म विलयं) तत्काल ही, उसी क्षण, घातिया कर्म विला जाते हैं (तत्कालं राय विषय मय गलियं) उसी क्षण राग-द्वेष, विषय अहंकार गल जाते हैं (थानंत नंतनंतं थान) अनंतानंत पदार्थों को जानने की शक्ति केवलज्ञान की एक समय की पर्याय में होती है (सुद्ध) आत्मा द्रव्य, गुण, पर्याय तीनों से शुद्ध परमात्मा हो जाती है (च) और (गारवं विलय) सब गारव विला जाता है। (दंसन अनंत दर्स) दर्शन अनंत दर्शन हो जाता है (दंसन दंसेइ) उस अनंत दर्शन में दिखता है (लोय अवलोयं) लोकालोक, लोक अलोक (धुवं च निस्चय सहावं) यह आत्मा का ध्रुव निश्चय स्वभाव है (धुव निस्चय परम केवलं न्यानं) यही ध्रुव निश्चय शाश्वत स्वभाव परम केवलज्ञान है। विशेषार्थ- केवलज्ञान की महिमा अपूर्व है, केवलज्ञान होते ही उसी क्षण घातिया कर्म विला जाते हैं, उसी क्षण राग-द्वेष, विषय-कषाय गल जाते -E-S-16 E
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy