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गाथा - ५९,६०*-**-31-3-2-H-HE
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* ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी
अनुभूतियुत श्रद्धान तथा स्व-पर का अनुभव प्रमाण ज्ञान हो गया फिर डरने की *क्या बात है? ज्ञान ध्यान करो तो सारे कर्म विला जायेंगे। जैसे- स्फटिक मणि * अपने स्वभाव से शुद्ध है, लाल, पीले, नीले वस्तु के संपर्क से लाल, पीला, नीला
रूप परिणमन हो जाता है तब भी स्वभाव से शुद्ध है। वैसे ही यह आत्मा स्फटिक मणि के समान निर्मल शुद्ध है तथा परिणमन शील है।
कर्मों के उदय का निमित्त न होने पर यह सदा अपने शुद्ध आत्मीक गुणों में ही परिणमन करता है। संसार अवस्था में कर्मों का उदय निमित्त होने पर यह स्वयं राग-द्वेष, मोह रूप व नाना प्रकार के विभाव रूप परिणमन करता है तथापि स्वभाव से त्रिकाल शुद्ध है। ऐसे शुद्ध स्वभाव का ध्यान करने से कर्मों का क्षय होता है।
आत्मा शुद्ध चैतन्य निरावरण ज्योति सिद्ध स्वरूपीशुद्धात्मा है, ऐसा जिसके ज्ञान में आया वह ज्ञानी जीव अपने स्वरूप में स्थिर हो जाता है, यही शुद्ध ध्यान है। जहाँ ज्ञान, ज्ञान में स्थिर हुआ वहाँ विशेष आनन्द की धारा बहती है। इससे पूर्व कर्म बंधोदय अपने आप गल जाते हैं, विला जाते हैं।
ज्ञानी यह जानता है कि मैं एक चैतन्य मात्र ज्योति स्वरूप शुद्धात्मा हूँ। जिस समय उसके भीतर इस आत्म ज्योति का प्रकाश होता है अर्थात् जब अपने शुद्ध स्वभाव का ध्यान करता है तब नाना प्रकार के विकल्प जालों का समूह जो इन्द्रजाल के समान मन में था, वह सब विला जाता है, क्षय हो जाता है। निर्विकल्प निजानंद में रमण करने से सब कर्म विला जाते हैं।
आत्मा के द्वारा आत्मा का अनुभव करना मोक्षमार्ग है । जो आत्मज्ञानी आत्मध्यान की साधना करता है उसको चार विशेषतायें प्रगट होती हैं -
१. आत्मीक सुख का वेदन होता है, यह अतीन्द्रिय आनंद उसी जाति का है जो आनंद अरिहंत सिद्ध परमात्मा को होता है।
२. अंतराय कर्म के क्षयोपशम से शुभयोग, अनुकूलता मिलती है। आत्म वीर्य बढ़ता है, जिससे अंतरंग में उमंग उत्साह पूर्वक आगे बढ़ने का पुरुषार्थ बढ़ता है।
३. पाप कर्मों का अनुभाग कम होता है, पुण्य कर्मों का अनुभाग बढ़ता है। ४. आयु कर्म के अतिरिक्त सर्व कर्मों की स्थिति कम होती जाती है। प्रश्न- आत्म ध्यान की और विशेषता क्या है? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं -
मन पर्जय सुभावं, मन विलयं सुद्ध झान सभावं । रिजु विपुलं व सहावं, चिंतामनि सुद्ध रयन ममलं च ॥५१॥ धम्म अनन्त ममलं, धम्मं धरयंति लोय अवलोयं । रिजु विपुलं च उवन, कम्म मल तिविहि भाव विलयति ॥१०॥
अन्वयार्थ - (मन पर्जय सुभावं) शुद्ध स्वभाव के ध्यान से मन: पर्यय ज्ञान प्रगट होता है (मन विलयं) मन विलीन हो जाता है, विला जाता है (सद्ध झान सभावं) स्वभाव के शुद्ध ध्यान से (रिजु विपुलं च सहावं) रिजु विपुलमति ज्ञान प्रगट होता है (चिंतामनि सुद्ध रयन) चिंतामणि शुद्ध रत्न के समान (ममलं च) ममल भाव प्रगट हो जाता है।
(धम्म अनन्त ममलं) धर्म अपना अनंत चतुष्टय धारी ममल स्वभाव है (धम्मं धरयंति) धर्म को धारण करने से (लोय अवलोयं) लोक का स्वरूप देखने जानने में आता है (रिजु विपुलं च उवनं) रिजुमति विपुल मति ज्ञान प्रगट हो जाता है (कम्म मल) कर्म मल और (तिविहि भाव) तीन प्रकार के मिथ्यात्व भाव (विलयंति) विला जाते हैं।
विशेषार्थ- शुद्ध स्वभाव के ध्यान से मन: पर्यय ज्ञान प्रगट होता है. शुद्ध ध्यान स्वभाव से मन विला जाता है। आत्मध्यान से रिजु, विपुलमति ज्ञान प्रगट होता है। शुद्ध चिंतामणि रत्न के समान ममल भाव प्रगट होता है। धर्म अपना अनंत चतुष्टयमयी ममल स्वभाव है। इस धर्म को धारण करने से लोक का स्वरूप, समस्त पदार्थ स्पष्ट झलकते हैं। रिजु विपुलमति ज्ञान पैदा होने से सारे कर्म मल और तीनों मिथ्या भाव विला जाते हैं।
आत्म ध्यान की बड़ी महिमा है, आत्म ध्यान करने से वीतरागता प्रगट होती है । मन विला जाता है, मन: पर्यय ज्ञान प्रगट होता है, जिसके दो भेद-रिज़मति और विपुलमति हैं। इनके प्रगट होने से चिंतामणि के समान अपना रत्नत्रय स्वरूप प्रगट हो जाता है, जिसके प्रकाश में जगत के समस्त पदार्थ स्पष्ट झलकने लगते हैं। अपना अनंत चतुष्टयमयी ममल स्वभाव दिखने लगता है, जिससे सारे कर्म मल और तीनों मिथ्यात्व भाव विला जाते हैं।
__ स्व-पर ग्राहक ऐसा ज्ञान प्रकाश स्व को जानता है और पर को भी जानता है लेकिन पर को जानकर उसे भिन्न रखता है। चैतन्य लक्षण द्वारा स्व को लक्षित करते ही आत्म ध्यान की स्थिति बनती है, तब ज्ञान ज्ञान में ही जम गया अर्थात्
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