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-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
न्यान समयं च ) लोकालोक को जानने का आत्मा का स्वभाव है।
विशेषार्थ आत्मा टंकोत्कीर्ण है, जैसे मूर्ति बनाने वाले पाषाण खंड निकाल देते हैं, वैसे ही द्रव्य कर्म, भाव कर्म, नोकर्म से रहित मन वचन काय से भिन्न अपने स्वरूप को जान लिया है तो अपने आत्म स्वरूप की ऐसी दृढ़ता, हठ ठानो कि मैं ज्ञान स्वभावी चेतन तत्त्व भगवान आत्मा हूँ। ध्रुव ध्रुव ध्रुव, ममल स्वभावी शुद्धात्मा हूँ, ऐसे शुद्ध ममल स्वभाव में रहना ही मुक्ति है।
वही ज्ञान श्रेष्ठ है व परम ज्ञान है जो अपने स्वरूप की इतनी दृढ़ता, स्थिरता रखता है, अपने में अटल, अभय रहता है, निरंतर अपना स्मरण, ध्यान रखता है । केवलज्ञान स्वभाव में लोकालोक झलकता है, अब अपने रत्नत्रय स्वरूप में लीन रहो। यह किवाड़ बंद करो, बाहर पर पर्याय को देखना बंद करो, ज्ञान स्वभाव में लीन रहो इसी से मुक्ति, सिद्धि की प्राप्ति होती है।
क्षायिक सम्यक्दर्शन का विकल्प भी बाधा है, जब तुम आत्मज्ञानी हो, सम्यक्दर्शन पूर्वक सम्यक्ज्ञान हो गया तो अपने ज्ञान स्वभाव में स्थित दृढ़ रहो। टंकोत्कीर्ण अप्पा, जब सब कर्मों को तोड़कर अलग कर दिये, मन वचन काय से अपने स्वरूप को भिन्न जान लिया, तो इस बात पर दृढ़ अटल रहो, इसी से शुद्ध मुक्त सिद्ध होओगे। ज्ञान की विशेषता तो तभी है, जब तुम अपने रत्नत्रय स्वरूप में लीन रहो। अब पर पर्याय की तरफ देखो ही मत। यह दरवाजे बंद कर दो, अपने में लीन रहो, जो ज्ञेय जानने में आते हैं तो आने दो, तुम्हारा स्वभाव तो लोकालोक को जानने का है। कर्मोदय पर्याय शरीरादि संयोग से अब डरते क्यों हो ? मन के संकल्प-विकल्प शुभाशुभ भाव चलते हैं तो चलने दो, तुम अपने ज्ञान स्वभाव में रहो तो वह सब अपने आप गल जायेंगे। इतनी दृढ़ता, हठ ठानो, अपने में स्वस्थ होश में रहो, तभी ज्ञानी सम्यक्ज्ञानी हो ।
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कोत्कीर्ण अप्पा ध्रुवतत्त्व शुद्धात्मा ममल स्वभावी है, ऐसा भेदज्ञान पूर्वक कर्मों से और शरीरादि संयोग से अपने को भिन्न जान लिया तो अपने में दृढ़ स्थित रहो अब चल विचल होने की जरूरत नहीं है। ऐसी दृढ़ता धरो, हठ ठानो कि मैं ध्रुवतत्त्व शुद्धात्मा ही हूँ, कर्मोदय संयोग पर्याय कैसी क्या चलती है, चलती रहे तुम उसे देखो ही मत, अपने ध्रुवधाम में स्थित रहो, यही तो मुक्ति है। जब केवलज्ञान में लोकालोक झलकता है वहाँ कुछ होता नहीं तो यह कर्मोदय जन्य पर्याय से भयभीत भ्रमित होने की क्या बात है ? इतनी दृढ़ता पूर्वक अपने में स्थित रहो तभी तुम्हारे ज्ञान की और ज्ञानीपने की विशेषता है।
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गाथा ५८ *-*-*-*-*-*-*
आत्मा स्वभाव से लोकालोक का ज्ञाता है, अपने गुणों में परिणमनशील है इसलिये समय है। ऐसे आत्मा का सच्चा श्रद्धान सम्यक्दर्शन है, इसी का सच्चा ज्ञान सम्यक्ज्ञान है व इसी में तल्लीनता सम्यक्चारित्र है। इस रत्नत्रय की एकता में तिष्ठना ही दरवाजे के भीतर रहना है, यही स्वभाव में ठहरना है। जिससे कर्मास्रव का प्रवेश न हो, इसी की साधना से आत्मा पूर्ण मुक्त शुद्ध सिद्ध होता है। यही ज्ञान की श्रेष्ठता और विशेषता है।
अपने आत्मज्ञान का टंकार, ध्यान लगाओ तो यह सारे कर्म क्षय हो जायेंगे, इसके लिये आगे गाथा कहते हैं
टंकार झान सुद्धं, ढलिओ कम्मान तिविहि विलयंति ।
फटिक सुभावं सुद्धं, फटिक सुभावेन कम्म गलियं च ॥ ५८ ॥
अन्वयार्थ ( टंकार) ध्वनि, ललकार (झान सुद्धं) शुद्ध आत्म ध्यान की
( ढलिओ) ढह जाते हैं, भाग जाते हैं (कम्मान तिविहि) तीनों प्रकार के कर्म द्रव्य कर्म, भावकर्म, नोकर्म (विलयंति) विला जाते हैं (फटिक सुभावं) स्फटिक मणि का स्वभाव (सुद्ध) शुद्ध होता है (फटिक सुभावेन) ऐसे स्फटिक मणि के समान अपने शुद्ध स्वभाव से (कम्म गलियं च) सब कर्म गल जाते हैं।
विशेषार्थ जैसे-युद्ध में वीर योद्धा धनुष की टंकार करता है या दीर्घ स्वर से ललकार करता है तो सामने वाला योद्धा दब जाता है, हट जाता है, भाग जाता है, उसी प्रकार शुद्ध आत्म ध्यान की टंकार से तीनों प्रकार के कर्म ढह जाते हैं, विला जाते हैं। जैसे- स्फटिक मणि स्वभाव से शुद्ध स्वच्छ श्वेत निर्मल होती है, उसमें जिस प्रकार का डाक लगाते हैं वह वैसी दिखने लगती है परंतु वह उस रूप नहीं होती, स्वभाव से शुद्ध श्वेत ही रहती है, इसी प्रकार स्फटिक मणि के समान आत्मा स्वभाव से त्रिकाल शुद्ध है, कर्मोदय संयोग निमित्त से वैसा देखने कहने में आता है परंतु स्वभाव से शुद्ध ही है। ऐसे शुद्ध स्वभाव का ध्यान करने से सब कर्म गल जाते, क्षय होते हैं ।
ज्ञानमार्ग की साधना मोक्षमार्ग पर चलना शूरवीर, क्षत्रिय, योद्धा नर का काम है। अंतरंग कर्म शत्रुओं को जीतने वाला ही महावीर होता है। जैसे- युद्ध में धनुष की टंकार ध्वनि करने, ललकारने से शत्रु भाग जाता है वैसे ही आत्म ध्यान की टंकार करने से सारे कर्म शत्रु भाग जाते हैं। इतनी दृढ़ता आत्मबल पुरुषार्थ
की शक्ति स्वयं में आवश्यक है। जब भेदज्ञान पूर्वक अपने आत्म स्वरूप का
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