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________________ गाथा- ५६,५७ --2---- -- - * ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी अंत:करण में जो छिपा हुआ राग रहता है, उसका नाम वासना है। * वासना का ही दूसरा नाम आसक्ति और प्रियता, प्रमोद भाव है। मेरे को अमुक वस्तु या विषय मिल जाये ऐसी इच्छा कामना है,यही मूळ परिग्रह है।कामना पूरी होने की संभावना आशा है।कामना पूर्ति होने पर अधिक की चाह लोभ है,लोभ की मात्रा अधिक बढ़ जाने का नाम तण्णा है। सब जगह आसक्ति रहित हुआ जीव उस-उस शुभ-अशुभ को प्राप्त करके न तो आनंदित होता है और नदेषकरता है वह आत्मज्ञानी है। वर्तमान में जीव के एक तरफ अपना परमात्म स्वरूप है और एक तरफ संसार है। जब वह परमात्म स्वरूप का आश्रय छोड़ देता है, तब वह संसार का आश्रय लेकर संसार का ही चिंतन करता है। विषयों का सेवन चाहे मानसिक हो, चाहे शारीरिक हो, उससे जो सुख होता है, उससे विषयों में प्रियता पैदा होती है। विषयों का चिंतन करने वाले मनुष्य की उन विषयों में आसक्ति पैदा हो जाती है, आसक्ति से कामना पैदा होती है, कामना से क्रोध पैदा होता है, क्रोध होने पर सम्मोह (मूढभाव) हो जाता है, सम्मोह से स्मृति भृष्ट हो जाती है, स्मृति भृष्ट होने से बुद्धि का नाश हो जाता है, बुद्धि का नाश होने से मनुष्य का पतन हो जाता है। यह जो क्रम बताया है इसका विवेचन करने में तो देरी लगती है परंतु बिजली के करंट की तरह यह सभी वृत्तियाँ तत्काल पैदा होकर मनुष्य का पतन करा देती हैं। जिसके मन इन्द्रियाँ संयमित नहीं होते, उसकी बुद्धि स्थिर नहीं रहती। जो मननशील संयमी साधु पुरुष होते हैं वही अपने परमात्म स्वरूप की साधना कर सकते हैं। परमात्म स्वरूप आत्म तत्त्व चेतन है, नित्य है, सत्य है, असीम है, अनंत है और सांसारिक भोग पदार्थ जड़ हैं, अनित्य हैं, असत् हैं, सीमित हैं, अंत वाले हैं। जो जीव संपूर्ण कामनाओं का त्याग करके निर्मम, निरहंकार और निस्पृह वीतरागी होता है वह परमात्म पद प्राप्त करता है। वशीभूत अंत:करण वाला कर्मयोगी साधक राग-द्वेष से रहित अपने वश * में की हुई इंद्रियों के द्वारा विषयों का सेवन करता हुआ अंत: करण की प्रसन्नता 4 को प्राप्त हो जाता है। प्रसन्नता प्राप्त होने पर साधक के संपूर्ण दु:खों का नाश हो *जाता है और ऐसे प्रसन्न चित्त वाले साधक की बुद्धि नि:संदेह बहुत जल्दी परमात्मा में स्थिर हो जाती है। जिस समय साधक न इंद्रियों के भोगों में तथा न कर्मों में ही आसक्त होता है अर्थात् कुछ भी भला-बुरा नहीं मानता, उस समय वह संपूर्ण संकल्पों का त्यागी योगारूढ़ कहा जाता है, योग का अर्थ समता भाव है। समभाव ही मोक्ष का उपाय है, सच्चे भाव मुनि को तो शुद्धात्म द्रव्याश्रित उग्र शुद्ध परिणति चलती रहती है। कर्तापना तो सम्यक्दर्शन ज्ञान होने पर ही छूट जाता है, उग्र ज्ञानधारा वर्तती रहती है, परम समाधि परिणमित होती है, वे बार-बार निजात्मा में लीन होकर अतीन्द्रिय आनंद का वेदन करते रहते हैं, उनके प्रचुर स्वसंवेदन होता है, अनंत गुणों की विशुद्धि हो जाती है, कर्मों का क्षय होता जाता है। एक मुहूर्त स्वभाव में लीनता होने पर केवलज्ञान प्रगट हो जाता है, अनंत चतुष्टय सर्वज्ञता परमात्म पद प्रगट हो जाता है, संसार परिभ्रमण का अभाव हो जाता है फिर जन्म-मरण नहीं होता। सादि अनंतकाल तक अपने शाश्वत सिद्ध पद में रहते हैं। प्रश्न- वर्तमान में क्षायिक सम्यकदर्शन होता नहीं ऐसी स्थिति में क्या किया जाये? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - टकोत्कीन अप्पा, टूट कम्मान तिविहि जोएन । ठानं कुनसि सहावं, न्यान सहावेन मुक्ति ठिदि सुद्धं ॥५६॥ न्यानं च परम न्यानं, न्यान सहावेन समय सुद्धच। दण्ड कपाट तिअर्थ, लोयालोयेन न्यान समयं च ॥५७॥ __अन्वयार्थ - (टंकोत्कीन अप्पा) टंकोत्कीर्ण आत्म स्वभाव है अर्थात् जैसे पाषाण खंड में मूर्ति बनाई जाती है, टांकी से सब अशुद्धि पाषाण खंड दूर कर दिये जाते हैं, इसी तरह टंकोत्कीर्ण रूप आत्मा को जाना है, वह कभी मिटता नहीं (टूट कम्मान) कर्मों को तोड़-तोड़ कर अलग कर दिये (तिविहि जोएन) त्रिविध योग मन, वचन, काय से अपने स्वरूप को भिन्न जान लिया (ठानं कुनसि सहावं) अपने स्वभाव की ऐसी दृढ़ता, हठ ठानो, कुनसि अर्थात् रूठकर बैठ जाते हैं कि ऐसा ही होना (न्यान सहावेन) अपने ज्ञान स्वभाव में (मुक्ति) मुक्ति में, धुवधाम में (ठिदि) स्थिरता रखो (सुद्धं) यही सच्चा पुरुषार्थ है। (न्यानं च परम न्यानं) वही ज्ञान श्रेष्ठ व उत्तम ज्ञान है (न्यान सहावेन समय सुद्धं च) जिस ज्ञान स्वभाव में ठहरने से समय अर्थात् आत्मा शुद्ध हो जावे (दण्ड कपाट तिअर्थ) किवाड़ बंद करके अपने रत्नत्रय स्वरूप में रहो (लोयालोयेन E-E-5-15-3-E-E ६३ ************ 平平平平平平
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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