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________________ गाथा-७६,७७HH--------- 会长长长长: ** *** श्री उपदेश शुद्ध सार जी सम्मत्त सुख सुख, सुख दर्सेइ विमल रुवेन । कम्मं तिविहि विमुक्कं, रागं दोषं च गारवं विपनं ॥६॥ विपिऊ मिथ्यात सुभावं, पुन्नंपावंच विषय संषिपन। कुन्यान तिविहि विपन, विपियं संसार सरनि मोहंध॥७॥ अन्वयार्थ - (सम्मत्त सुद्ध सुद्ध) सम्यक्त्व शुद्ध से शुद्ध वह है जिसमें (सुद्धं दर्सेइ विमल रूवेन) अपना विमल शुद्ध स्वरूप ही दिखता है (कम्मं तिविहि विमुक्कं) जो तीनों प्रकार के कर्मों-द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म से मुक्त, रहित है (रागं दोषं च गारवं विपन) जिससे राग-द्वेष और गारव क्षय हो जाते हैं। (पिपिऊ मिथ्यात सुभावं) मिथ्यात्व स्वभाव अर्थात् दर्शन मोहनीय की तीनों प्रकृति-मिथ्यात्व, सम्यकमिथ्यात्व, सम्यक् प्रकृति मिथ्यात्व क्षय हो जाता है (पुन्नं पावं च विषय संषिपनं) पुण्य-पापका राग और इंद्रियों के विषयों का राग नहीं रहता है अर्थात् पुण्य-पाप और विषयों के भाव भी क्षय हो जाते हैं फिर उनकी मान्यता रुचि नहीं रहती है (कुन्यान तिविहि विपन) तीनों प्रकार का कुज्ञान-कुमति, कुश्रुति, कुअवधि ज्ञान नहीं रहता है (पिपियं संसार सरनि मोहंध) संसार में परिभ्रमण कराने वाला मोहांध भाव भी नहीं रहता है, क्षय हो जाता है। विशेषार्थ-शुद्ध सम्यक्त्व, निज शुद्धात्मा का अनुभूति युत श्रद्धान होना है, जिसमें अपना विमल शुद्ध स्वरूप ही दिखता है। सम्यक्त्व की शुद्धि होने से वह अपने को द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्मों से रहित देखता है, उसके राग-द्वेष और गारव के भाव छूट जाते हैं। दर्शन मोहनीय की तीनों प्रकृति-मिथ्यात्व, सम्यक् मिथ्यात्व, सम्यक् प्रकृति मिथ्यात्व क्षय हो जाता है. पुण्य-पाप और विषयों के भाव भी विला जाते हैं। तीनों प्रकार का कुज्ञान-कुमति, कुश्रुत, कुअवधिज्ञान नहीं रहता है तथा संसार में परिभ्रमण कराने वाला मोहभाव भी नहीं रहता है। सम्यक्दृष्टि का प्रेम, रुचि अपने शुद्धात्म स्वरूप की, मुक्ति की ओर अतीन्द्रिय सुख की हो जाती है, उसका राग भाव संसार से छूट जाता है, वह * अपने को तीनों कर्मों से भिन्न ममल स्वभावी देखता है। उसको पर से राग-द्वेष और मद नहीं रहता है, वह जगत को वस्तु स्वरूप से देखता है । चौथा गुणस्थानवर्ती अविरत सम्यक्दृष्टि भी अनंतानुबंधी कषाय और मिथ्यात्व के न 2 होने से श्रद्धान में बिल्कुल वैरागी है, भीतर से अत्यंत उदास है तथापि *** * * * ** अप्रत्याख्यानावरण आदि कषायों के उदय से जगत में आवश्यक कार्य करता है, उनमें राग-द्वेष भी होता है परंतु इस सबको वह कर्मोदय जन्य जानता है। भावना यही होती है कि कब यह कषाय का उदय मिटे और मैं इस प्रपंच से छुटूं: क्योंकि सम्यक्त्वी को ज्ञान वैराग्य की अपूर्व शक्ति पैदा हो जाती है। वह पर रूप से छूटकर अपने स्वभाव में लीन रहना चाहता है, वस्तु स्वरूप का अभ्यास करता है क्योंकि उसने तत्त्व दृष्टि (द्रव्य दृष्टि) से अपने को व पर को भिन्न-भिन्न जान लिया है; इसलिये वह सर्व ही राग के कारणों से विरक्त रहता है और अपने स्वरूप में ठहरता है । सम्यक्दृष्टि जगत की माया को क्षणभंगुर नाशवान जानता है इसलिये वह किसी प्रकार का गारव या मद नहीं करता है, वह बड़ा ही नम्र विनयवान होता है। सम्यकदृष्टि जीव के मिथ्यात्व भाव नहीं रहा, न उसके कुदेवादि की श्रद्धा रूप गृहीत मिथ्यात्व है और न पर पर्याय में रतिरूप अगृहीत मिथ्यात्व है। उसके भीतर शुद्ध भावों की रुचि हो गई है इसलिये वह पुण्य बंध को सोने की बेडी और पाप बंध को लोहे की बेड़ी जानता है, पुण्य-पाप दोनों से उदासीन है। पांचों इन्द्रियों के विषय भोग की भी श्रद्धा मिट गई है, उसे भोग रोग के समान काले नाग 2 जैसे दिखते हैं। उसको कुमति, कुश्रुत, कुअवधिज्ञान नहीं होते हैं। मिथ्यात्व अवस्था में स्त्री, पुत्रादि धन परिग्रह में उन्मत्त था, इससे संसार के मार्ग में बहाने वाले तीव्र कर्मों को बांधता था। अब भीतर से सबसे वैरागी है इसलिये संसार ॐ कारणीभूत कर्मों के बंध इसको नहीं होते हैं। शंकादि दोष रहित सम्यक्दर्शन परम रत्न है। यह निश्चय से संसार के दु:ख रूपी दारिद्र्य का नाश कर देता है। सम्यकदर्शन सहित जीव को निश्चय से निर्वाण होता है। जो सम्यक्दर्शन में दृढ मन रखने वाला है वही पंडित है, वही विनयवान है, वही धर्मज्ञाता है, उसी का दर्शन प्रिय है, वही संयमी सदाचारी है। जिसको द्रव्यदृष्टि यथार्थप्रगट हुई है उसे दृष्टि के जोर में अकेला ज्ञायक चैतन्य ममल स्वभाव ही भासता है, शरीरादि कुछ भी भासित नहीं होता। भेदज्ञान की परिणति ऐसी दृढ हो जाती है कि स्वप्न में भी आत्मा शरीर से भिन्न भासता है। स्वभाव की महिमा से पर पदार्थों के प्रति रसबुद्धि, सुख बुद्धि टूट जाती है, स्वभाव में ही रस आता है, दूसरा सब नीरस लगता है, तभी अंतर की सूक्ष्म संधि ज्ञात होती है। स्वभाव की तीव्र रुचि होने से उपयोग अंतर में प्रज्ञा छैनी का कार्य __करता है, जिससे कर्म, कषाय, मिथ्यात्व, पुण्य, पाप, विषय, कुज्ञान सब छूट ७३ 器卷卷卷卷 -----E-HE-HEE
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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