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*-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
पारिणामिक भाव के आलंबन द्वारा अंतर स्वरूप स्थिरता में वृद्धि करता जाता है। अपने में सिद्ध भगवान जैसा आंशिक अनुभव करता है परंतु वह वहाँ स्थायी रूप में स्थिर नहीं रह सकने के कारण साधक दशा में रहता है।
पूर्ण गुणों से अभेद ऐसे पूर्ण आत्म द्रव्य पर दृष्टि करने से उसी के आलंबन से पूर्णता प्रगट होती है। इस अखंड द्रव्य एक परम पारिणामिक भाव का आलंबन ही शुद्धता की वृद्धि करता है, इसी पर दृष्टि रखने से शुद्ध ममल परमेष्ठी पद प्रगट होता है।
प्रश्न- परम पारिणामिक भाव रूप परमेठी पद और आत्मा में क्या अंतर है ?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं
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ममात्मा सुकिय सुभावं, ममात्मा सुद्धात्म ममल मिलियं च । सहकार न्यान समयं सर्वन्यं सुद्ध समय अन्मोयं ।। ५२ ।। अन्वयार्थ - (ममात्मा सुकिय सुभावं) मेरे आत्मा का स्वभाव भी वैसा ही है (ममात्मा सुद्धात्म ममल मिलियं च) जैसा शुद्धात्मा ममल स्वभावी है, वैसा ही मेरे आत्मा का स्वभाव है (सहकार न्यान समयं) ऐसे शुद्धात्मा को ज्ञान में स्वीकार करना, अनुभूति में लेना इससे (सर्वन्यं सुद्ध समय अन्मोयं) आत्मा में लीन होने, शुद्धात्मा का आलंबन लेने से सर्वज्ञ स्वरूप, शुद्ध वीतराग पद प्रगट होता है।
विशेषार्थ - निश्चय से आत्मा ही परमात्मा है, स्वभाव से प्रत्येक जीव आत्मा परमात्मा है । द्रव्य अपेक्षा वर्तमान पर्याय में अशुद्धता है, इसके निराकरण के लिये मेरे आत्मा का अपना स्वभाव भी वैसा ही है, जैसा शुद्धात्मा ममल स्वभावी परम पारिणामिक भाव परमेष्ठी पद वाला है, वैसा ही मेरा आत्म स्वभाव है। ऐसे शुद्धात्मा का यथार्थ श्रद्धान ज्ञान स्वीकार करना, अनुभूति में लेना तथा अपने आत्म स्वभाव, ज्ञायक भाव में स्थित रहने से, सर्वज्ञ स्वरूप शुद्ध वीतराग पद प्रगट होता है।
अपने आत्मा को परमात्मा के समान निश्चय करके जो इस आत्मीक ज्ञान में स्थिर होता है वही कर्मों को नाशकर परमात्मा हो जाता है।
परम पारिणामिक भाव रूप परमेष्ठी पद परमात्मा में और आत्मा में स्वभाव से कोई अंतर नहीं है । द्रव्य शुद्ध है, पर्याय अपेक्षा पर्याय में अशुद्धि है। वह अशुद्धि शुद्ध परम पारिणामिक भाव शुद्धात्म स्वरूप का आश्रय आलंबन लेने से
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गाथा ५२-५५ ******
उस रूप स्थित रहने से पर्याय की अशुद्धि दूर होकर स्वयं सर्वज्ञ परमात्मा हो जाता है।
निश्चय नय से जिसने आत्मा का अनुभव प्राप्त कर लिया है, उसने पांचों परमेष्ठी परम पारिणामिक भाव का अनुभव कर लिया। यह पांचों पद आत्मा को ही दिये गये हैं, व्यवहारनय से या पर्याय दृष्टि से आत्मा के पांच भेद हो जाते हैं, निश्चय से आत्मा एक रूप ही है।
जिस आत्मा में चार घातिया कर्मों के क्षय से अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत वीर्य, अनंत सुख, क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक चारित्र गुण प्रगट हैं परंतु चार अघातिया कर्मों का उदय है व उनकी सत्ता है तथापि वे जीवन मुक्त परमात्मा अरिहंत है। सिद्ध भगवान आठों ही कर्मों से रहित प्रगटपने शुद्धात्मा हैं, वहाँ शरीरादि किसी भी पुद्गल कर्मादि का संयोग नहीं है वे निरंजन निर्विकार हैं। सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, वीर्य, अगुरुलघुत्व, अव्याबाधत्व, सूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व इन आठ गुणों से विभूषित हैं, परम कृत कृत्य हैं, निश्चल परमानंदी हैं। उनके स्वरूप को अपने आत्मा में विराजमान करके एकतान हो जाना सिद्ध का ध्यान है।
प्रत्येक आत्मा भी निश्चय से परमात्मा है ऐसा जानकर वीतरागभाव या समभाव में होकर स्वानुभव का अभ्यास करना, इससे परमात्म पद प्रगट होता है। प्रश्न- क्या ऐसे ज्ञान श्रद्धान ( कहने सुनने) मात्र से परमात्म पद प्रगट हो जाता है या इसमें और कुछ भी होता है ?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैंपिनिक विमल सुभावं षिपिओ कम्मान सरनि विलयं च । पिपिओ अन्यान प्रमोदं न्यान सहायेन अन्योप मम च ।। ५३ ।। नाना प्रकार दिही, न्यान सहावेन इस्टि परमिस्टी । लिंगं च जिनवरिंदं, लिंगं सुद्धं च कम्म विलयंति ॥ ५४ ॥ लीनं अनन्तनंतं, लीनं सुभाव न्यान सहकारं । एवं च गुन विसुद्ध एवं तिक्तंति सरनि संसारे ।। ५५ ।। अन्वयार्थ (षिपनिक विमल सुभावं ) अपने विमल ममल स्वभाव का
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