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********** श्री उपदेश शुद्ध सार जी ॐ ही ज्ञानी जीव अरिहंत सिद्ध स्वरूप को अपने में देखता है, चिंतन करता है,
विचार करता है तो यह पागलपना नहीं, यह वास्तविकता यथार्थ सत्य है, श्री 4 ममलपाहुड़ जी शास्त्र के जनगन बावलो फूलना में श्री तारण स्वामी ने इसका विशेष स्पष्टीकरण किया है। जैन परंपरा में शुद्ध निष्कलंक चिदानंद स्वरूप में अवस्थित आत्मा ही परमात्मा है, इसमें जीवात्मा से भिन्न कोई परमात्मा नहीं माना गया है, अत: शक्ति की अपेक्षा से सभी जीव आत्मा परमात्मा हैं।
प्रश्न-ऐसी धारणा और विचार करने से क्या होता?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - झानं च सुख झानं, झानं न्यानं च परिनाम परमप्पं । नंतानंत चतुस्टं, न्यान सहावेन कम्म विलयंति ॥५०॥
अन्वयार्थ - (झान) ध्यान (च) और (सुद्ध झानं) शुद्ध ध्यान (झानं न्यानं) ज्ञान ध्यान (च) और (परिनाम) भाव (परमप्पं) परमात्म स्वरूप है इससे (नंतानंत चतुस्टं) अनंत चतुष्टय प्रगट होते हैं (न्यान सहावेन) ज्ञान स्वभाव में लीन रहने से (कम्म विलयंति) कर्म विला जाते हैं, कर्मों का क्षय हो जाता है।
विशेषार्थ- चित्त का किसी वस्तु में एकाग्र होने का नाम ध्यान है और उपयोग का अपने स्वभाव में एकाग्र होना शुद्ध ध्यान है। जहाँ ज्ञान ध्यान और परिणाम अपने परमात्म स्वरूप के होते हैं, ऐसे ज्ञान स्वभाव की साधना से कर्मों का क्षय होता है और अनंत चतुष्टय स्वरूप परमात्म पद प्रगट होता है।
आत्मज्ञानी के चिन्तन की धारा अपने धुवतत्त्व शुद्धात्म स्वरूप ममल ज्ञान स्वभाव की ही चलती रहती है। उपयोग की स्वरूप एकाग्रता ही शुद्ध ध्यान है। जहाँ ज्ञान ध्यान और परिणाम परमात्म स्वरूप के होते हैं वहाँ कर्म अपने आप विला जाते हैं तथा अनंत चतुष्टय स्वरूप प्रगट हो जाता है।
राग-द्वेष छोड़कर शुद्धोपयोग में रमण करने से यह आत्मा अरिहंत परमात्मा हो जाता है। शुक्ल ध्यान होने से कर्म क्षय होने लगते हैं तथा अनंत चतुष्टय
स्वरूप प्रगट हो जाता है। यह साधक की साधना का क्रम है, जो गुणस्थान क्रम * से जीव की पात्रता और पुरुषार्थ से होता है। सम्यकदृष्टि को भले स्वानुभूति स्वयं
पूर्ण नहीं है परंतु दृष्टि में परिपूर्ण ध्रुव आत्मा है। ज्ञान परिणति द्रव्य तथा पर्याय * को जानती है परंतु पर्याय पर जोर नहीं है। ज्ञानी का परिणमन विभाव से विमुख
होकर स्वरूप की ओर ढल रहा है, ज्ञानी निज स्वरूप में परिपूर्ण रूप से स्थिर हो
जाने को तरसता है। ************
गाथा - ५०,५१** ***** जो केवलज्ञान प्राप्त कराये, ऐसी अंतिम पराकाष्ठा का ध्यान शुद्ध ध्यान है, अंतर्मुखता तो अनेक बार होती है, ज्ञान ध्यान की स्थिति बनती है, परिणाम उछलते हैं। जैसे- पूर्णमासी के पूर्ण चंद्र के योग से समुद्र में ज्वार आता है, इसी प्रकार ज्ञानी साधक को पूर्ण चैतन्य चंद्र के एकाग्र अवलोकन से आत्म समुद्र में ज्वार आता है, वैराग्य का ज्वार आता है, आनंद का ज्वार आता है, सर्व गुण पर्याय का यथा संभव ज्वार आता है तथा जब इसकी तीव्रता और परिपूर्णता होती है तब सारे घातिया कर्म क्षय होकर अनंत चतुष्टय प्रगट हो जाता है।
प्रश्न-इसके लिये क्या करना पड़ता है?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - परम भाव परमिस्टी, परम जिनेहि नन्त ममल सभावं। वरं वेस्ट इस्टी, इस्टी दिस्टी च ममल सुख परमिस्टी॥५१॥
अन्वयार्थ - (परम भाव) परम पारिणामिक भाव स्वरूप ही (परमिस्टी) परम इष्ट है, पंच परमेष्ठीमयी है (परम जिनेहि) वही परम जिन है. परम जिनेन्द्र देव है (नन्त ममल सभावं) जो अनंत चतुष्टय का धारी ममल स्वभावी है (वरं सेस्ट) सर्वोत्कृष्ट, श्रेष्ठ है (इस्टी) इष्ट है (इस्टी दिस्टी) ऐसे इष्ट स्वभाव की दृष्टि (च) और (ममल सुद्ध परमिस्टी) ममल शुद्ध परमेष्ठी बनाती है।
विशेषार्थ - परम पारिणामिक भाव स्वरूप निज स्वभाव ही परम इष्ट पंच परमेष्ठीमयी है, यही परमजिन जिनेन्द्र देव है, जो अनंत चतुष्टय का धारी ममल स्वभावी है, वही सर्वोत्कृष्ट श्रेष्ठ और इष्ट है, ऐसे इष्ट स्वभाव की दृष्टि ममल शुद्ध परमेष्ठी परमात्मा बनाती है।
आत्मा को जानने वाला ध्याता पुरुष धर्मी जीव जिसको स्व संवेदन आनन्दानुभूति सहित का एक अंश ज्ञान प्रगट हुआ है, ऐसा ध्यानी ज्ञानी, उस प्रगट दशा का ध्यान नहीं करता । अनुभव की जो पर्याय है वह एकदेश प्रगट पर्याय रूप है। एक समय की पर्याय के पीछे विराजमान, सकल निरावरण अखंड एक प्रत्यक्ष प्रतिभासमय अविनश्वर शुद्ध परम पारिणामिक भाव लक्षण निज परमात्म स्वरूप का ध्यान करता है। जो पंच परमेष्ठीमयी अनंत चतुष्टय का धारी* ममल स्वभावी स्वयं जिनेन्द्र परमात्मा है । इसी इष्ट स्वभाव परम पारिणामिक भाव की दृष्टि, पर्याय को शुद्ध कर स्वयं ममल शुद्ध परमेष्ठी अरिहंत परमात्मा बनाती है। ज्ञानी को यथार्थ द्रव्य दृष्टि प्रगट हुई है, वह अपने शुद्ध ममल परम
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