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गाथा-४८,४९*
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********** श्री उपदेश शुद्ध सार जी * प्रतिमादि हुए बिना रहते नहीं, अवश्य होते हैं परंतु वे शुभराग बंध के कारण हैं * उनमें उपयोग लाना हेय है, ज्ञानी ऐसा जानते हैं। शुद्धता की वृद्धि अनुसार
कषायादि घटने से व्रतादि के शुभ भाव होते हैं ऐसा वस्तु स्वरूप है। यहाँ आत्मज्ञानी की अंतर दशा को बताया जा रहा है। बाहर से पर्याय की पात्रतानुसार सारा परिणमन स्वयमेव होता है, हो रहा है और होगा, ज्ञानी उसका कर्ता नहीं ज्ञायक है।
प्रश्न -ज्ञानी की अंतर दशा क्या होती है?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - सिद्ध सरूवं पिच्छदि, चेतन परिनाम न्यान संजुत्तं। चिदानन्द आनन्दं, श्रुत न्यानं च चेयना रूवं ॥ ४८॥
अन्वयार्थ- (सिद्ध सरूवं पिच्छदि) अपने सिद्ध स्वरूप को पहिचानकर (चेतन परिनाम) चेतना भाव (न्यान संजुत्तं) सम्यक्ज्ञान सहित (चिदानन्द आनन्द) अतीन्द्रिय आत्मानंद से पूर्ण ज्ञानानंद निजानंद में (श्रुत न्यानं) श्रुतज्ञान में (च) और (चेयना रूवं) चैतन्य स्वरूप देखता है।
विशेषार्थ-द्रव्यश्रुत द्वादशांग वाणी है, इसके द्वारा जो निज आत्मा का बोध होता है वह भावश्रुत ज्ञान है। इस भावश्रुत ज्ञान में अपना ही आत्मा सिद्ध स्वरूप दिखता है, जहाँ पूर्ण ज्ञान दर्शन स्वभाव है, पूर्ण आनंद स्वभाव है व पूर्ण ज्ञान चेतना भाव है। निश्चय से आत्मज्ञानी, भावश्रुत ज्ञान के द्वारा आत्मा को सिद्ध स्वरूप अनुभव करता है। उस समय अतीन्द्रिय आनंद, ज्ञानानंद, निजानंद स्वभाव में निमग्न ज्ञान चेतना भाव रूप ही रहता है।
सिद्ध सरूव सुरति तस्न जिन खेलहिं फागु । सिद्ध स्वरूप की सुरत आना ही परमानंद में आत्म विभोर कर देती है। मै सिद्ध स्वभावी शुद्धात्मा हूँ, ऐसे ज्ञान चैतन्य परिणाम अपूर्व अतीन्द्रिय आनंद चिदानंद में निमग्न करने वाले हैं। ज्ञानी ने ज्ञान चेतनामयी सिद्ध स्वरूप को ग्रहण किया है. अभेद में ही दृष्टि है। मैं ज्ञानानंद स्वभावी हूँ ऐसा स्वानुभूति में ले रहा है, जिसमें अनंत आनंद भरा हुआ
है,परम शांति परमानंद मयी निज चैतन्य स्वरूप में मगन रहता है। उसके ज्ञान * में अपना तीर्थंकर सर्वज्ञ स्वरूप झूलता है।
इसकी विशेषता के लिये आगे गाथा कहते हैं -
छत्रनय संजुक्तं, छीनं संसार सरनि सुभावं । जाता उववंन परमं, जैवंतो नंत दंसनं चरनं ॥ ४९ ॥
अन्वयार्थ - (छत्रत्रय संजुक्तं) श्री अरिहंत केवली तीन छत्र से सुशोभित हैं (छीनं संसार सरनि सुभाव) जिन्होंने संसार परिभ्रमण स्वभाव को क्षय कर दिया है (जाता उववंन परमं) परम ज्ञाता दृष्टा हो गये हैं (जैवंतो नंत दंसनं चरनं) उनका अनंत दर्शन चारित्र गुण जयवंत हो।
विशेषार्थ- आत्मज्ञानी श्रुतज्ञान के द्वारा अपने आपको तीर्थंकर स्वरूप अनुभवता है, जैसे श्री केवलज्ञानी अरिहंत तीर्थंकर परमात्मा समवशरण में तीन छत्र, सिंहासन आदि आठ प्रातिहार्यों से शोभायमान हैं। संसार परिभ्रमण के कारण मोहनीय कर्म घातिया कर्मों को क्षय कर दिया है, परम ज्ञाता दृष्टा हो गये, जिनके केवलज्ञान के एक समय की पर्याय में तीन काल तीन लोक के समस्त द्रव्य और उनका त्रिकालवर्ती परिणमन झलकता है तथा वह अपने अनंत चतुष्टय स्वरूप में अनंतदर्शन, चारित्र गण में लीन परमानंद में जयवंत हैं। तीन लोक में जय-जयकार मच रही है । ज्ञानी ऐसे ही अपने सर्वज्ञ तीर्थंकर स्वरूप को ज्ञानानुभूति में लेता है।
प्रश्न - यह तो पागलों जैसी दशा है, इससे होता क्या है?
समाधान - आत्मज्ञानी को संसारी पागल समझते हैं तथा आत्मज्ञानी संसार को पागल समझता है। सभी पागल हैं पर सही पागल कौन है ? इसका निर्णय करना पड़ेगा।
१. संसारी जीव-जो नहीं है, जो हो नहीं सकता ऐसी कल्पनायें किया करता है, जो कभी हो सकते नहीं ऐसे नाना प्रकार के मनसबे बांधा करता है तथा आगे-पीछे की बातें सोच-सोच कर भयभीत चिंतित दु:खी रहता है। जैसे-गधे के सींग नहीं होते, आकाश में फूल नहीं खिल सकते. संसारी अज्ञानी जीव इनकी आशा करता है। जो अपना है नहीं, हो सकता नहीं उसे (धन, शरीरादि, परिवार को) अपना मानता है, इनका कर्ता बनता है, तो पागल कौन है ?
२.ज्ञानी जीव-जो वस्तु स्वरूप है, जो होने वाला है, उसका विचार करता है तथा संसार से उदासीन निस्पृह आकिंचन्य वीतरागी अपने में आनंदित प्रसन्न रहता है। जैसे-कोई बालक पिता के समान बनने का विचार करे तो वह उसका यथार्थ है, भविष्य बनने वाला है उसके अंदर वह शक्ति विद्यमान है, ऐसे
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