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克-華克·尔惠-箪业-帘业不常
-*-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
आराधना करता है, जिससे ज्ञायक भाव प्रगट होता है, यह आगे गाथा में कहते हैं
जाता उववन्न रूवं, जोयंतो न्यान सुद्ध ससहावं ।
रयनं रयन सहावं, अप्पा परमप्प ममल न्यानं च ।। ४६ ।। लंकित परमानन्द, लीनं सुद्धं च केवलं न्यानं ।
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मति न्यान सुद्ध सुद्धं, नंत चतुस्टव सुद्ध ससरूवं ।। ४७ ।। अन्वयार्थ - (जाता उववन्न रूवं) ज्ञायक स्वरूप प्रगट होता है (जोयंतो) देखने से, देखता है (न्यान) ज्ञानमयी (सुद्ध ससहावं) शुद्ध स्वभाव को (रयनं) रत्न के समान (रयन सहावं) रत्नत्रय स्वभाव (अप्पा) आत्मा (परमप्प) परमात्मा (ममल न्यानं च) निर्मल ज्ञान, केवलज्ञान स्वभावी है।
(लंक्रित) अलंकृत (परमानन्दं) परमानंद में (लीनं) तल्लीनता (सुद्धं ) शुद्ध स्वभाव (च) और (केवलं न्यानं) केवलज्ञान में (मति न्यान सुद्ध सुद्धं) वही परम शुद्ध मतिज्ञान है (नंत चतुस्टय सुद्ध ससरूवं) अनंत चतुष्टयमयी शुद्ध स्व स्वरूप झलकता है।
विशेषार्थ आत्मज्ञानी को ज्ञायक स्वरूप प्रगट हो जाता है जिससे आत्मा व अनात्मा को भिन्न-भिन्न देखने जानने की शक्ति प्रगट हो जाती है। जब वह स्वानुभव में जमता है अर्थात् अपने ज्ञान स्वरूपी शुद्ध स्वभाव को देखता है तब रत्न के समान रत्नत्रय स्वभाव प्रगट हो जाता है जिसमें आत्मा परमात्मा केवलज्ञान स्वभावी दिखाई देने लगता है, परमानंदमय अलंकृत हो जाता है। अपने शुद्ध केवलज्ञान स्वभाव में तल्लीनता, उसी ओर टकटकी लगाये रहना यही परम शुद्ध मतिज्ञान है। शुद्ध मतिज्ञान में अपना अनंत चतुष्टयमयी शुद्ध स्वरूप झलकने लगता है।
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मन द्वारा आत्मा की सत्ता स्वरूप को स्वीकार कर लेने का नाम मतिज्ञान की शुद्धि है। जहाँ आत्मा के शुद्ध स्वभाव में श्रद्धा पूर्वक तल्लीनता है, वहाँ परमानंदमयी परमात्मा ही निर्विकल्प रूप से अनुभव में आता है, यही स्वात्मानुभव परम अतीन्द्रिय आनंद का दाता है।
आत्मानुभव का ऐसा महात्म्य है कि परीषह आने पर भी जीव की ज्ञानधारा चलित नहीं होती। तीनों काल व तीन लोक की प्रतिकूलताओं के ढेर एक साथ आ जायें तो भी ज्ञाता रूप से रहकर उन सभी को सहन करने की शक्ति आत्मा के
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गाथा ४६, ४७ **-*-*-*-*-*
ज्ञायक स्वभाव की एक समय की पर्याय में विद्यमान है। जिसने आत्मा को शरीरादि व रागादि से भिन्न जाना है, उसे यह परीषहों के ढेर जरा भी प्रभावित नहीं कर • सकते । चैतन्य अपनी ज्ञातृधारा से जरा भी विचलित नहीं होता बल्कि स्वरूप स्थिरता पूर्वक दो घड़ी स्वरूप में लीन हो जाये तो पूर्ण केवलज्ञान प्रगट कर ले, जीवन्मुक्त दशा हो जाये, परमानंदमयी मोक्षपद हो जाये।
ज्ञानी के आंतरिक जीवन को समझने हेतु अंतरंग पात्रता चाहिये। धर्मात्मा अपने पूर्व प्रारब्ध के योग से बाह्य संयोग में रहते हों तो भी उनकी परिणति अंदर से कुछ अन्य ही कार्य करती रहती है। ज्ञानी को अंतर में स्व संवेदन ज्ञान प्रस्फुटित हुआ, वहाँ स्वयं को उसका वेदन आया, पीछे उसे अन्य कोई जाने या न जाने उसकी कोई अपेक्षा नहीं है।
धर्मात्मा को अपना रत्नत्रय रूप आत्मा ही परमप्रिय है, संसार संबंधी अन्य कुछ प्रिय नहीं है। धर्मी को अपने रत्नत्रय स्वभाव रूप मोक्षमार्ग के प्रति अभेद बुद्धि पूर्वक परम वात्सल्य होता है। स्वयं को रत्नत्रय धर्म में परम वात्सल्य होने से उन्हें अन्य रत्नत्रय धर्मधारक जीवों के प्रति भी वात्सल्य भाव उल्लसित हुए बिना नहीं रहता।
जो कोई जीव जड़कर्म की और शरीरादि की अवस्था का कर्ता नहीं है, उसे अपना कर्तव्य नहीं मानता है, तन्मय बुद्धि पूर्वक परिणमन नहीं करता है परंतु मात्र ज्ञाता है, साक्षी रूप से तटस्थ रहता है वह आत्मा ज्ञानी है।
आत्मज्ञानी जगत का साक्षी हो गया, पर वस्तु मेरी है, ऐसी दृष्टि (मान्यता) छूटने से वह उसका साक्षी ज्ञायक हुआ है।" पर मेरा है और मैं उसका हूँ" ऐसी मान्यता छूट गई है। परमात्मा हो, परद्रव्य हो, शरीरादि संयोग हो, शुभाशुभ भाव हो सबका मात्र ज्ञायक है। ज्ञान और आनंद स्वरूप केवलज्ञान स्वभावी अनंतचतुष्टय धारी परमानंद मयी परमात्मा वह मैं हूँ, इस प्रकार निज वस्तु का स्वयं के द्वारा अनुभव करता है और निज वस्तु से भिन्न वस्तुओं का ज्ञाता रहता है। राग और ज्ञानी के ज्ञान में ज्ञेय ज्ञायक संबंध है।
प्रश्न- आत्मज्ञानी को व्रत संयम आदि के भाव होते हैं या नहीं ? वह व्रत प्रतिमादि दीक्षा लेता है या नहीं ?
समाधान - शुद्धात्मा का अनुभव होने के पश्चात् जीव की पात्रता बढ़ने
पर अथवा पांचवां, छठा गुणस्थान होने से उस उस प्रकार के भाव और व्रत
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