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________________ गाथा -४५* * ** E-5-16 HE- S * ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी विशेषार्थ - आत्मज्ञान होने पर जब सर्व संकल्प-विकल्प, विचार चितवन * रूप भावना अस्त हो जाती है और आप आपमें निर्विकल्प रूप से लयता प्राप्त * होती है तब वहाँ जो निर्लेप और शून्य भाव होता है उसे ही गगन स्वभाव कहते हैं, वहाँ आत्मा परमात्मा रूप ही झलकता है और परमानंद का लाभ होता है। जैसे-आकाश अपने में निर्लेप, निर्विकारी,शुद्ध, परिपूर्ण समस्तपर संयोगों से शून्य है। जो आकाश में बादल समूह दिखाई देते हैं वह सब विला जाने वाले भ्रम मात्र हैं। इसी प्रकार आत्मा असंख्यात प्रदेशी होकर भी शरीर प्रमाण रहता है। शुद्ध दृष्टि ज्ञानी आत्म देव को तैजस, कार्माण, औदारिक तीनों शरीरों से भिन्न देखता है, सर्व रागादि भाव से भिन्न देखता है. कर्म के निमित्त से होने वाले औदयिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक भावों से भिन्न एक शुद्ध परम पारिणामिक स्वभाव धारी अनुभवता है और आनंद परमानंद में रहता है। द्रव्यदृष्टि से जीव के साथ कर्मों का संयोग नहीं दिखता है, तब कर्म की अपेक्षा से होने वाले भाव भी नहीं दिखते हैं। क्षायिक भाव यद्यपि अपने ही आत्मा का निज भाव है परंतु कर्मों के क्षय से प्रगट होने के कारण कर्म सापेक्ष हो। जाता है। शुद्ध दृष्टि से आत्मा के साथ न कभी कर्म का सम्बंध था, न है, न होगा। तीन काल में एक स्वरूप मय शुद्ध आकाश के समान निर्मल यह आत्मा है। यद्यपि कर्मों के संयोग से नर-नारक, पशु-देव बार-बार हुआ। यह विचार पर्याय दृष्टि से है तो भी द्रव्यदृष्टि से आत्मा जैसा है वैसा ही है। पर्याय दृष्टि से यह चंचल दिखता है, इसमें मन वचन काय के निमित्त से प्रदेशों का कंपन होता है व योग शक्ति कर्म नोकर्म को ग्रहण करती है तथापि द्रव्य दृष्टि से वह मन वचन काय से रहित है। चंचलता रहित परम निश्चल है, कर्म नोकर्म को ग्रहण नहीं करता है। परम पारिणामिक भाव वाला आनंद परमानंदमयी परमात्मा है ऐसा शुद्ध दृष्टि अनुभव करता है। प्रश्न-इससे क्या होता है? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैंचन पाय कम्म विलयं, धन समूह नंत संसारे । जिनं सुभाव उववन्न, न्यान सहावेन जिनवरिंदेहि ॥ ४५ ॥ अन्वयार्थ - (घन घाय कम्म विलयं) कठोर घातिया कर्म विला जाते हैं (घन समूह) जैसे बादलों का समूह विला जाता है (नंत संसारे) वैसे ही अनंत संसार का परिभ्रमण विला जाता है (जिनं सुभाव उववन्न) जिन स्वभाव प्रगट हो जाता है (न्यान सहावेन) ज्ञान स्वभाव से (जिनवरिंदेह) जिनेन्द्र देव हो जाता है। विशेषार्थ- आत्मज्ञान की महिमा बडी अपूर्व है. शुद्ध दृष्टि सहित स्वरूप लीनता होने से सारे घातिया कर्म (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अंतराय) विला जाते हैं, जैसे-आकाश में बादलों का समूह अपने आप विला जाता है, वैसे ही अनंत संसार का परिभ्रमण विला जाता है, छूट जाता है। आत्मज्ञान होने से जिन स्वभाव प्रगट हो जाता है तथा ज्ञान स्वभाव की साधना से जिनेन्द्र परमात्मा हो जाता है। आत्म ध्यान में ऐसी शक्ति है कि भव-भव के संचित घातिया कर्म क्षण मात्र में नष्ट हो जाते हैं और केवलज्ञान प्रगट हो जाता है। भरत चक्रवर्ती ने दीक्षा लेने के बाद मात्र एक अंतर्मुहूर्त ही ध्यान किया और वे केवली हो गये। शिवभूति मुनि 3 को भी तुष मास भिन्नम् आत्मज्ञान होने से आत्मध्यान पूर्वक केवलज्ञान प्रगट हो गया। यह आत्मा अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक चारित्र, अनंत दान, अनंत लाभ, अनंत भोग, अनंत उपभोग, अनंत वीर्य, अनंत सुख इन दस विशेष गुणों का धारी परमात्म स्वरूप है। यह सर्वज्ञ व सर्वदर्शी होकर भी आत्मज्ञ व आत्मदर्शी है। यह ज्ञेय की अपेक्षा सर्वज्ञ सर्वदर्शी कहलाता है। शुद्ध सम्यक्दर्शन का धारी होकर निरंतर आत्म प्रतीति में प्रवर्तमान है। सर्व कषाय भावों के अभाव से परम वीतराग यथाख्यात चारित्र से विभूषित है, स्वयं को स्वयं आनन्द देने वाला अनंत दान का दाता है, निरंतर स्वात्मानंद का लाभ करना अनंत लाभ है, स्वात्मानंद का ही निरंतर भोग है, स्वात्मानंद का ही बार-बार उपभोग है, गुणों के भीतर परिणमन करते हुए कभी भी खेद नहीं पाता यही अनंत वीर्य है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय व अंतराय कर्मों से रहित होकर अनंत सुख का समुद्र है। अभेद नय से एक अखंड आत्मा को ध्यावें तब स्वानुभव का लाभ होता है, यही आत्मदर्शन है, यही सुख शांति प्रदायक भाव है, यही आत्म समाधि है, यही निश्चय रत्नत्रय की एकता है। आत्मज्ञानी साधक निश्चिन्त होकर परम प्रेम भाव से अपने आत्मा की ही E--- E- ५७
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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