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गाथा-४३,४४
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* ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी *से, मिलने से (इस्टं सुभाव) इष्ट स्वभाव के (भाव परिनाम) भाव परिणाम होने * लगते हैं (ईर्जा पंथ) सरल मार्ग (निवेदं) निर्णय में आता है (ईर्ज सुभाव) सरल * स्वभाव से (सुद्ध न्यान) शुद्ध ज्ञान, विशेष ज्ञान (उववन्न) पैदा होने लगता है।
विशेषार्थ- आत्मज्ञान होने से अपने आप इष्ट संयोग, अनुकूल वातावरण मिलने लगता है। धर्म साधना के, अपने आत्म स्वभाव के भाव परिणाम होने लगते हैं। सरलता सहजता से उस मार्ग पर चलने लगता है। सरल स्वभाव ज्ञान की शुद्धिरूप विशेष ज्ञान प्रगट होता है।
शुद्ध चैतन्य धुव के ध्यान से जिसे आत्मज्ञान प्रगट हुआ है, ऐसे जीव को ऐसी पर्याय रूप योग्यतायें होती हैं कि वह सहजता से उस ओर बढ़ने लगता है। संसार से विरक्ति, विषय कषायों से निवृत्ति रूप परिणाम होने लगते हैं। संयम तप त्याग वैराग्य के भाव होने लगते हैं और वह सरलता, सहजता से उस मार्ग पर चलने लगते हैं। निर्विकारी आनंद सहित जो ज्ञान होता है उसे सम्यक्दृष्टि का क्षयोपशम ज्ञान कहते हैं। सम्यक्दर्शन एवं आत्म अनुभव की स्थिति रूप पर्याय में संपूर्ण आत्मा नहीं आता परंतु समस्त शक्तियाँ उस पर्याय में एकदेश प्रगट होती हैं।
साधक परद्रव्य कर्मोदय शरीरादि के प्रति उदासीन रहता है क्योंकि शुद्ध स्वरूप का अनुभव होने से उसे शुद्ध चैतन्य ही उपादेय है, भूमिकानुसार देव गुरु शास्त्र की महिमा, भक्ति, श्रुत चिंतवन, अणुव्रत, महाव्रत के शुभ विकल्प आते हैं परंतु ज्ञानी की भावना तो स्वरूप में स्थिर रहने की होती है तथा सरलता सहजता से जो होता है, उसमें आनंदित रहता है।
और विशेषता रूप आगे गाथा कहते हैं - कमल सुभावं दिह, केवल सुभाव परम जोएन । षिपनिक भाव संजुत्तं, विपिओ कम्मान तिविहि जोएन ॥४३॥
अन्वयार्थ -(कमल सुभावं) कमल के समान, निर्विकारीन्यारा, प्रफुल्लित स्वभाव (दि8) दिखता है, प्रगट होता है (केवल सुभाव) केवलज्ञान स्वभाव (परम जोएन) परमयोग, ध्यान समाधि में दिखता है (षिपनिक भाव) क्षायिक भाव, दृढ, अटल श्रद्धा, विश्वास (संजुत्तं) लीन रहता है, संयुक्त रहता है (पिपिओ कम्मान) कर्मो का क्षय होता है (तिविहि जोएन) योग, मन वचन काय की एकाग्रता से।
विशेषार्थ- आत्मज्ञान होने पर कमल समान प्रफुल्लित स्वभाव प्रगट कर होता है। परम योगाभ्यास ध्यान समाधि की साधना से केवलज्ञान स्वभाव दिखने
लगता है। भेदज्ञान तत्त्व निर्णय के बल से क्षायिक भाव में लीन रहता है तथा त्रिविध योग की साधना से कर्मों की निर्जरा होने लगती है।
__ आत्मज्ञान होने से आत्म ध्यान की सहज साधना चलने लगती है। योगाभ्यास से कमल स्वभाव प्रगट होता है। जैसे- कमल, पानी और कीचड़ से निर्लिप्त न्यारा अपने में प्रफुल्लित सुवासित खिला हुआ रहता है, वैसे ही ज्ञानी साधक अपने में प्रसन्न आनंद में रहता है। ध्यान योग की साधना से केवलज्ञान स्वभाव दिखता है। अपने सम्यक्दर्शन सम्यक्ज्ञान के जागरण से अपने में दृढ़, अटल, अडोल, अकंप, अभय क्षायिक भाव में रहता है। मन वचन काय की एकाग्रता रूप उपयोग का अपने स्वभाव में स्थित रहने से कर्मों का क्षय होता है।
त्रिकाली ध्रुवतत्त्व आत्मा को पकड़ने पर ही सम्यक्दर्शन ज्ञान होता है, उसे पकड़ने पर ही सम्यक्चारित्र होता है, उसे पकड़ने पर ही केवलज्ञान होता
है। जिसे आत्मा का विश्वास हुआ, उसे कोई विघ्न बाधा नहीं होते। स्वभाव के छ आश्रय से जितनी शुद्धता वर्तती है, उतना धर्म है, वही परमार्थ व्रत है और वही मोक्ष का साधन है।
जिसे सम्यकदर्शन प्रगट होने से अपने ज्ञानानंद स्वभाव पर दृष्टि आई है वह जीव आठ गुणों से संपन्न होकर पर से दृष्टि हटाकर स्वयं ज्ञान के रसास्वाद में विभोर होकर नृत्य करता है, उसके इस कार्य से उसे ज्ञान भाव के कारण नवीन कर्मों का संवर होता है तथा पूर्व बद्ध कर्म उदय में आकर बिना फल दिये ही निर्जरा को प्राप्त हो जाते हैं।
इसी की विशेषता रूप आगे गाथा कहते हैं - गगन सुभाव उर्वनं, गन अस्मूह दिस्टि सुद्धं च । आनन्दं परमानन्दं, परमप्पा परम भाव जोएन ॥ ४४ ॥
अन्वयार्थ - (गगन सुभाव) आकाश के समान शून्य स्वभाव (उर्वन) प्रगट होता है, पैदा होता है (गन अस्मूह) आकाश में बादल समूह (दिस्टि सुद्धं च) शुद्ध दृष्टि होती है (आनन्दं परमानन्द) परमानंदमयी परम सुख का अनुभव होता है (परमप्पा) परमात्मा (परम भाव) परम पारिणामिक भाव (जोएन) योग होता है, मिलता है, दिखता है।
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