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* ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी
बनाती है। मतिज्ञान में-चेतना में जो थोड़ा विशेषाकार भासित होने लगता है
उस ज्ञान को अवग्रह कहते हैं, स्व और पर दोनों का पहले अवग्रह होता है। 4 अवग्रह के द्वारा जाने गये पदार्थ को विशेष रूप से जानने की चेष्टा को ईहा कहते * हैं। विशेष चिन्ह देखने से उसका निश्चय हो जाना अवाय है। अवाय से निर्णीत * पदार्थ को कालांतर में न भूलना धारणा है।
जीव को अनादिकाल से अपने स्वरूप का भ्रम है इसलिये पहले आत्मज्ञानी पुरुष से आत्मस्वरूप को सुनकर युक्ति के द्वारा यह निर्णय करना कि आत्मा ज्ञान स्वभावी है तत्पश्चात् पर पदार्थ की प्रसिद्धि के कारण इन्द्रिय तथा मन द्वारा प्रवर्तमान बुद्धि को मर्यादा में लाकर अर्थात् पर पदार्थों की ओर से अपना लक्ष्य हटाकर जब आत्मा स्वयं स्व सन्मुख लक्ष्य करता है तब प्रथम सामान्य स्थूलतया आत्मा संबंधी ज्ञान हुआ, वह आत्मा का अर्थावग्रह हुआ,तत्पश्चात् स्व विचार के निर्णय की ओर उन्मुख हुआ सो ईहा और निर्णय हुआ सो अवाय अर्थात् ईहा से ज्ञान आत्मा में यह वही है अन्य नहीं, ऐसा दृढ़ ज्ञान अवाय है। आत्मा संबंधी कालांतर में संशय तथा विस्मरण न हो वह धारणा है। यहाँ तक तो मतिज्ञान में धारणा तक का अंतिम भेद हुआ। इसके बाद यह आत्मा अनन्त ज्ञानानंद शांति स्वरूप है, इस प्रकार मति में से प्रलम्बित तार्किक ज्ञान श्रुतज्ञान है। भीतर स्वलक्ष्य में मन, इंद्रिय निमित्त नहीं हैं। जब उससे अंशत: प्रथक् होता है, तब स्वतंत्र तत्त्व का ज्ञान करके उसमें स्थिर हो सकता है।
सम्यक्दृष्टि को अपना आत्मज्ञान होते समय यह चारों प्रकार का ज्ञान होता है। धारणा तो स्मृति है, जिस आत्मा को सम्यक्ज्ञान अप्रतिहत (निर्बाध) भाव से हुआ हो उसे आत्मा का ज्ञान धारणा रूप बना ही रहता है।
आगम में कहा है कि स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्ष, कर्ण और मन यह छह प्रकार लब्ध्यक्षर श्रुतज्ञान है। लब्धि का अर्थ है क्षायोपशमिक रूप (विकास रूप) शक्ति और अक्षर का अर्थ है अविनाशी। जिस क्षायोपशमिक शक्ति का कभी नाश न हो, उसे लब्ध्यक्षर कहते हैं। लब्ध्यक्षर ज्ञान श्रुतज्ञान का अत्यंत सूक्ष्म भेद है।
मतिज्ञान के भेदों की संख्या निम्नानुसार है - अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा-४ पांच इंद्रिय और मन-६-४४६%२४ तथा विषयों की अपेक्षा से बहु-बहुविध आदि १२-२४-१२-२८८ व्यंजनावग्रह के भेद -४८-२८८ + ४८ % ३६६ भेद
गाथा-४२** *** अक्षर, स्वर, व्यंजन, पद, अर्थ के स्वरूप का बोध जाग्रत होने से पंचार्थ का सही निर्णय करता है, जिससे अपेक्षा समझने से सारे वाद-विवाद मिट जाते हैं।
१.जो ध्यानरूपी अग्नि के द्वारा कर्म कलंक को भस्म करके शुद्ध नित्य निरंजन ज्ञानमय हुए हैं उन परमात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ, यह परमात्मा को नमस्कार का शब्दार्थ हुआ।
२. शुद्ध निश्चय नय से आत्मा परमानंद स्वरूप है, स्वयं परमात्मा है, पूर्ण शुद्धता प्रगट हुई वह सद्भूत व्यवहार नय का विषय है, कर्म दूर हुए वह असद्भूत अनुपचरित व्यवहार नय का विषय है। इस प्रकार नय के अभिप्राय से वास्तविक अर्थ समझ में आता है। यथार्थ ज्ञान में साधक के सुनय होते ही हैं, यह नयार्थ हुआ।
३. जिस प्रकार की विपरीत एकान्त मान्यता चल रही हो, वह भूल बताकर उस भूल रहित सच्चा अभिप्राय समझना मतार्थ है।
४. जो सत्शास्त्र में सिद्धांत में कहा हो उसके साथ अर्थ को मिलाना आगमार्थ है। सिद्धांत में जो प्रसिद्ध अर्थ हो वह आगमार्थ है।
५.तात्पर्य अर्थात् इस कथन का अंतिम अभिप्राय सार क्या है ? कि परमात्म रूपवीतरागी त्रिकाली आत्मद्रव्य ही उपादेय है इसके अतिरिक्त कोई भी निमित्त या किसी प्रकार का राग विकल्प उपादेय नहीं है, यह सब तो मात्र जानने योग्य है। एक परम शुद्ध स्वभाव ही आदरणीय है। भाव नमस्कार रूप पर्याय भी निश्चय से आदरणीय नहीं है। इस प्रकार परम शुद्धात्म स्वभाव को ही उपादेय रूप से अंगीकार करना भावार्थ है।
सम्यक्नय सम्यक् श्रुतज्ञान का अवयव है और इसलिये वह परमार्थ से ज्ञान का (उपयोगात्मक) अंश है और उसके शब्दरूप कथन को मात्र उपचार से नय कहा है । आत्मज्ञान होने से इस प्रकार ज्ञान की शुद्धि और वृद्धि होने लगती है। अपने इष्ट स्वभाव की दृष्टि होने से कई विशेषतायें होने लगती हैं।
प्रश्न- और क्या विशेषतायें होने लगती है?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - इस्टं संजोय दिह, इस्टं सुभाव भाव परिनामं । ईर्जा पंथ निवेदं, ईर्ज सुभाव सुद्ध न्यान उववन्न ।। ४२ ॥ अन्वयार्थ -(इस्टं संजोय) इष्ट संयोग, अनुकूल वातावरण (दि8) देखने
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