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गाथा-४०,४१*-*
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* ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी
प्रश्न - आत्मज्ञान होने पर कैसा-कैसा क्या-क्या होता है?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - न्यानंकुरं च सहावं, न्यानं विन्यान अभ्यरं जोयं । विजन सहाव दिडं, पद विंदं विमल न्यान उववन्नं ॥४०॥ मति सुभाव स उत्तं, अव्यर सुर विंजनस्य पद अर्थ। षट् नि नि अभ्यर उवनं, तस्य परिनाम न्यान सुद्धं च ॥४१॥
अन्वयार्थ - (न्यानंकुरं च सहावं) आत्मज्ञान रूपी अंकुर, प्रादुर्भाव का ऐसा स्वभाव है कि (न्यानं विन्यान) भेदविज्ञान होने से (अध्यरं जोयं) अक्षय अविनाशी स्वभाव दिखता है, अक्षर जानने में आता है (विजन सहाव दिट्ठ) व्यंजन स्वभाव दिखता है अर्थात् वर्तमान दशा द्रव्य स्वभाव और पर्याय दोनों दिखते हैं, ज्ञान में जानने में आता है (पद विंदं) ध्रुव स्वभाव, सिद्ध पद की अनुभूति करने से (विमल न्यान उववन्नं) निर्मल ज्ञान, केवलज्ञान प्रगट होता है।
(मति सुभाव) मतिज्ञान, बुद्धि का जागरण (स उत्तं) उसे कहते हैं (अष्यर सुर विजनस्य पद अर्थ) अक्षर, स्वर,व्यंजन, पद, अर्थ, पंचार्थ का बोध जाग्रत हो जाता है (षट् त्रि त्रि अष्यर उवन) छह तीन तीन, तीन सौ छत्तीस [३३६] भेद मतिज्ञान के प्रगट हो जाते हैं (तस्य परिनाम) उसका परिणाम (न्यान सुद्धं च) ज्ञान शुद्ध हो जाता है।
विशेषार्थ- आत्मज्ञान रूपी अंकुर का ऐसा स्वभाव है अर्थात् आत्मज्ञान का जागरण होने पर,भेदविज्ञान होने से अक्षर, अक्षय अविनाशी स्वभाव दिखता है तथा व्यंजन स्वभाव अर्थात् वर्तमान दशा द्रव्य स्वभाव और पर्याय दोनों जानने में आते हैं। ध्रुव स्वभाव सिद्ध पद का आराधन, अनुभूति करने से केवलज्ञान प्रगट होता है।
मति स्वभाव बुद्धि का जागरण उसे कहते हैं कि अक्षर स्वर व्यंजन पद अर्थ का बोध जाग्रत हो जाता है। मतिज्ञान के तीन सौ छत्तीस भेद होते हैं. वह * प्रगट हो जाते हैं। आत्मज्ञान होने से ज्ञान शुद्ध हो जाता है अर्थात् ज्ञान का प्रकाश * होने लगता है।
जो कोई आत्मा आत्मज्ञानी होकर अपने आत्मा को अपने आत्मा बारा अपने आत्मा में देखता, जानता अनुभवता है वही निश्चय से **** * **
सम्यक्दर्शन ज्ञान चारित्र रूप मोक्षमार्ग को साधता है। स्वानुभव के प्रताप से ही परमात्म पद होता है।
ज्ञायक स्वभाव चैतन्य का जहाँ अंतर में भान हुआ, जानने वाला जाग उठा कि मैं तो ध्रुवतत्त्व शुद्धात्मा हूँ, ऐसा जब अनुभव में आया तब ज्ञानधारा को
कोई रोक नहीं सकता, फिर चाहे जैसा पर्याय का परिणमन हो पर वह तो पर्याय ॐ में है। वह अक्षय स्वभाव आत्मा में कहाँ है? पर्याय है, उसे ज्ञान ने जाना है परंतु ज्ञान ने उसमें मिलकर नहीं जाना है, यह आत्मज्ञान की अपूर्व महिमा है।
अज्ञानी पर्याय में एकमेक होकर अपने को वैसा मानता है। धर्मी को ज्ञानधारा प्रति क्षण चला करती है, इस ज्ञानधारा का चलना यही विशेष बात है। इस ज्ञानधारा से ही संसार परिभ्रमण से छुटकारा मिलता है। जिन्हें आत्मा के स्वरूप की रुचि हुई है, उन्हें भी शुभाशुभ राग आते हैं परंतु उन्हें राग से विरक्ति रूप वैराग्य होता है और आत्मा की ओर का शांत उपशम रस होता है।
आत्मज्ञान की अद्भुत महिमा है, जिसे भेदविज्ञान पूर्वक अपने अक्षय अविनाशी ध्रुव स्वभाव की अनुभूति हुई है, ऐसा सम्यकद्रष्टि जीव छह खंड के राज्य में संलग्न होने पर भी ज्ञान में तनिक भी ऐसी मचक नहीं आती कि ये मेरे हैं, छ्यानवे हजार अप्सरा जैसी रानियों के बीच रहने पर उनमें तनिक भी सुख बुद्धि नहीं होती तथा नरक की भीषण वेदना में पड़ा हो तो भी अतीन्द्रिय आनंद के वेदन की अधिकता नहीं छूटती है, इस सम्यकदर्शन रूपी आत्मज्ञान का क्या माहात्म्य है, जगत के लिये इस मर्म को बाह्य दृष्टि से समझना बहुत कठिन है।
जिसके ज्ञान में तीन काल और तीन लोक को जानने वाले भगवान बैठे हों उसके भव होता ही नहीं है क्योंकि उसका ज्ञान सर्वज्ञ स्वभाव से ढला है। भगवान जिसके हृदय में विराजते हैं उसका चैतन्य शरीर राग-द्वेष रूपी जंग से रहित हो जाता है।
जब यह आत्मा स्वयं राग से भिन्न होकर अपने में एकाग्र होता है तब केवलज्ञान को उत्पन्न करने वाली भेदज्ञानज्योति उदित होती है, जिसके प्रकाश में मतिज्ञान शुद्ध होता है, श्रुतज्ञान का प्रकाश होता है, अवधिज्ञान, मन: पर्ययज्ञान भी झांकने लगते हैं तथा केवलज्ञान प्रगट होता है।
आत्मज्ञान होने पर मतिज्ञान की विशेष निर्मलता होती है, जिसके तीन सौ छत्तीस भेद हैं। बुद्धि का जागरण ही विवेक कहलाता है। बुद्धि की निर्मलता और
स्थिरता ही स्थित प्रज्ञा कहलाती है, जो ज्ञानी को अकर्ता, अभोक्ता, अबन्ध ५४
芸芸各多长条
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