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गाथा-३९
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* ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी * अनुभूति युत निर्णय होना ही आत्म ज्ञान है।
सर्व प्रकार से भेदज्ञान में प्रवीण होना ही सर्वप्रथम क्रिया है। द्रव्य तो त्रिकाली और निरावरण है परंतु वर्तमान पर्याय में रागादि का सद्भाव है, ऐसी दो * दशाओं के मध्य प्रज्ञा छैनी (सूक्ष्म बुद्धि) लगाने से भिन्नता का अनुभव हो सकता * है। भेदज्ञान की प्रवीणता से, यह अनुभूति रूप शुद्ध चैतन्य ही मैं हूँ। यह कर्मादि
संयोग सब पर हैं, यह मैं नहीं हूँ, ऐसे आत्मज्ञान होता है। ज्ञान लक्षण से लक्षित चैतन्य स्वभाव का अनुभव होने पर ही आत्मज्ञान होता है।
पूर्णानंद के नाथ प्रभु परमात्मा को निजबुद्धि से मति श्रुत ज्ञान द्वारा आत्मा शुद्ध परमात्मा है, परमानंदमयी रत्नत्रय स्वरूप अनंत चतुष्टय का धारी सर्वज्ञ स्वभावी भगवान है और कर्म संयोग रागादि भाव आकुलतारूप संसार है, ऐसा दोनों का विवेक, भेदविज्ञान के पुरुषार्थ द्वारा आत्मानुभूति होना ही आत्म ज्ञान है।
जीव विकार तथा स्वभाव को एक मान रहा है अत: यथार्थ विचार नहीं कर पाता । वह यदि बुद्धि का सदुपयोग करे, अनादि मिथ्या धारणा में अवकाश संधि करे, भेदज्ञान करे तो जानने में आवे, मैं चैतन्य स्वरूप भगवान आत्मा हूँ और यह शरीरादि संयोग तथा विकारी भाव सब कृत्रिम असत् नाशवान मेरे से भिन्न हैं परंतु अज्ञानी ने तो उन दोनों में एकता मानी है। दया दानादि से धर्म होने की मान्यता, शुभाशुभ भाव में कर्ताबुद्धि,पर में एकत्व की विपरीत श्रद्धा, स्वभाव व विभाव को पृथक् जानने रूप विचार भी नहीं करने देती। भगवान आत्मा में ज्ञान अवस्थित है अत: जो-जो प्रसंग बनते हैं, उनमें ज्ञान करने का अवसर होने पर भी उनका ज्ञान करने के बजाय ज्ञेय ज्ञान के भेदज्ञान से शून्य होने के कारण स्वयं को ज्ञेय रूप जानता हुआ ज्ञान रूप परिणमित होने के बजाय अज्ञान रूप से परिणमित होता हुआ रागादिज्ञेय मेरे हैं ऐसा जानता हुआ अज्ञानी उनका कर्ता बनता है।
अनादि अनंत ऐसा जो एक निज शुद्ध चैतन्य स्वरूप है उसके स्वसन्मुख * होकर आराधन करना, अतीन्द्रिय ज्ञान स्वभाव को साधन बनाकर जो ज्ञान होता 4 है, वह ही आत्मा को जानने वाला है ऐसे ज्ञान की अनुभूति से सम्यक्दर्शन होने *के पश्चात् साधक को आत्मा सदा उपयोग स्वरूप ही जानने में आता है।
स्व-पर का श्रद्धान होने पर अपने को पर से भिन्न मैं शुद्ध चैतन्य आत्मा परमात्मा हूँ, ऐसा जानने से स्वयं के आश्रय से संवर निर्जरा रूप कर्मों का क्षय ******* ****
होता है।
जो पूरा निर्मल है, परिपूर्ण है, परम निरपेक्ष है, ध्रुव है और त्रैकालिक परिपूर्ण सामर्थ्यमय है, ऐसे अभेद एक परम पारिणामिक भाव का ही आश्रय करने योग्य है, उसी की शरण लेने योग्य है। उसी से सम्यक्दर्शन से लेकर मोक्ष तक की सर्व दशायें प्राप्त होती हैं।
जीव ने अनंतकाल में अनंत बार सब कुछ किया परंतु आत्मा को नहीं 2 पहिचाना । देव गुरू क्या कहते हैं वह बराबर जिज्ञासा से सुनकर विचार करके
यदि बुद्धि के सदुपयोग पुरुषार्थ पूर्वक निज स्वरूप में लीनता की जाये तो आत्मा पहिचानने में आये, आत्मज्ञान की प्राप्ति हो।
सर्वज्ञ परमात्मा द्वारा कथित पदार्थ के स्वरूप के अनुसार आचार्य रचित शास्त्र का सम्यक्प से अवगाहन करना सांगोपांग समझना ही साधकपना है। जैसे- गहरे समुद्र में अवगाहन करने से मोती मिलते हैं, वैसे ही शास्त्र के विषय में सम्यक् प्रकार प्रवेश कर अवलोकन करने से भावश्रुत प्रगट होता है। बुद्धि ज्ञान पूर्वक अपने स्वरूप शक्ति को जानना, ज्ञान लक्षण व लक्ष्य रूप आत्मा अपने ज्ञान में भासित होती है, तब सहज आनंद धारा बहती है। अतीन्द्रिय आनंद, परम सुख परम शांति का वेदन होता है वही अनुभव है।
प्रश्न- यह आत्मीय आनंद, आत्मज्ञान चाहते तो सब, पर यह होता क्यों नहीं?
समाधान- यह आत्मीय आनंद, परम सुख शांति, कोई चाहते नहीं हैं, मात्र कहते हैं क्योंकि रुचि अनुगामी पुरुषार्थ होता है, जिस तरफ की लगन और रुचि होती है उस तरफ का ही उद्यम पुरुषार्थ करते हैं। जीव क्या है और अजीव क्या है ? मैं कौन हूँ, मेरा स्वरूप क्या है? यह तो न जाने तथा शरीर के रोगों को दूर करने अथवा धनोपार्जन आदि उपायों से अपने दु:ख दूर करना चाहें तो वे उपाय तो झूठे हैं। दु:ख तो जीव में है और वह मोह के कारण है अत: उस दुःख को जीव में यथार्थ मानकर मोह का नाश करना ही दुःख दूर करने का उपाय है। अज्ञानी स्वभाव सन्मुखता का प्रयत्न नहीं करता बल्कि राग मोह के ही साधन पकड़ता है अत: उसका भ्रम दूर नहीं होता। सातों तत्त्वों को जाने बिना आत्मा की श्रद्धा नहीं होती। एक जीव तत्त्व को जानने में सातों ही तत्त्वों का ज्ञान हो जाता है। वही आत्मज्ञान परम सुख, शांति देता है, उसी से जीव आत्मीय आनंद में रहता है।
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