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________________ गाथा-३९--HRE - -- F-BE *E-HEEEEE * ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी * १. त्रिकालवर्ती अनंत द्रव्य पर्यायों के स्वरूप का ज्ञान होता है। * २. हित (इष्ट) की प्राप्ति और अहित (अनिष्ट) के परिहार का ज्ञान होता है। ३. मिथ्यात्व आदि से होने वाले आश्रव का निरोध रूप भाव, संवर होता है अर्थात् * शुद्ध स्वात्मानुभूति रूप परिणाम होता है। ४. प्रति समय संसार से नये-नये प्रकार की भीरुता, उदासीनता वीतरागता होती है। ५. व्यवहार और निश्चय रूप रत्नत्रय से अवस्थिति होती है, उससे विचलित नहीं होता। ६. रागादि का निग्रह करने वाले उपायों में भावना होती है। ७. पर को उपदेश देने की योग्यता प्राप्त होती है। ज्ञेय और ज्ञाता में अथवा ज्ञेय से युक्त ज्ञाता में सर्वज्ञ भगवान के द्वारा जैसा कहा गया है और जैसा उसका यथार्थ स्वरूप है तदनुसार प्रतीति होना सम्यक् दर्शन है और तदनुसार अनुभूति होना सम्यक्ज्ञान है और तद्रूप अपने में स्थित रहना सम्यक्चारित्र है, इन तीनों की एकता मोक्षमार्ग है तथा पूर्णता मोक्ष है। आगम को अनुभव से प्रमाण करने वाला ज्ञानी है, वही सच्चा जिनवाणी का उपासक है, जिससे स्वयं जिन, जिनवर परमात्मा होता है। तत्प्रति प्रीति चित्तेन, येन वार्तापि हिश्रुता। निश्चित स भवेद् भव्यो, भावि निर्वाण भाजनम् ॥ जिस जीव ने प्रसन्न चित्त से जिनवाणी द्वारा, इस जिन स्वरूप आत्मा की बात भी सुनी है वह भव्य पुरुष भविष्य में निर्वाण प्राप्त करता है। खंड-खंड ज्ञान का उपयोग भी परवशता है, परवश, पराधीन सो दु:खी है और स्ववश, स्वाधीन सो सुखी शिवशाश्वत चैतन्य तत्त्व के आश्रय रूप स्ववशता से शाश्वत सुख प्रगट होता है। शुद्धात्मा को जाने बिना, बाहर से भले ही संयम आदि शुभाचरण करता * रहे परंतु उससे आत्मा नहीं जाना जा सकता, जिनवाणी के ज्ञान से ही आत्मा जाना जा सकता है। यदि स्वभाव में अधूरापन मानेगा, कमी कमजोरी मानेगा तो पूर्णता को कभी प्राप्त नहीं कर सकता, जो भव्य- मैं पूर्ण हूँ, शुद्ध हूँ, सिद्ध हूँ ध्रुवतत्त्व शुद्धात्मा हूँ ऐसी पूर्ण आत्मा पर दृष्टि रखकर आगे बढ़ता है, उसे सिद्ध धवपद प्राप्त होता है। प्रश्न-जिनवाणी का स्वाध्याय इस हितकारी है या संयम तप पूजा भक्ति क्या दानादि रूप शुभाचरण इट हितकारी है? समाधान-मुनिव्रत धार अनंतबार, ग्रीवक उपजायो। पैनिज आतम ज्ञान बिना, सुख लेशन पायो॥ शुभाचरण रूप क्रियायें तो अनादि से करते आ रहे हैं और उसके फलस्वरूप ही यह मनुष्य भव मिला है परंतु आत्मज्ञान न होने से संसार परिभ्रमण नहीं छूटा । मुक्ति का एक मात्र कारण जिनवाणी के स्वाध्याय द्वारा वस्तु स्वरूप को समझना, भेदज्ञान पूर्वक निज आत्मानुभूति सम्यकदर्शन सम्यज्ञान होना ही इष्ट हितकारी है। इस मनुष्य भव की सार्थकता तो आत्मज्ञान प्राप्त करने में ही है, वह जैसे हो सके एक मात्र उसका पुरुषार्थ करना ही श्रेयष्कर इष्ट हितकारी है। प्रश्न - आत्मज्ञान प्राप्त करने का उपाय क्या है? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - न्यानेन न्यान सुद्ध, न्यान विन्यान सहाव सुइरूवी। कम्म मल सुर्यच विपनं, अप्पा परमप्प सुद्ध अन्मोयं ॥३९॥ अन्वयार्थ - (न्यानेन न्यान सुद्ध) ज्ञान से ज्ञान शुद्ध होता है, बुद्धि के सदुपयोग से आत्मज्ञान होता है (न्यान विन्यान) भेदविज्ञान से आत्मज्ञान होता है (सहाव) स्वभाव, सहयोग (सुइ) स्वयं, श्रुत (रूवी) रूपी, स्वरूपी (कम्म मल) कर्म मल (सुयं च विपनं) स्वयं क्षय होते हैं, अपने आप झड़ते हैं, क्षय होने लगते हैं (अप्पा) आत्मा (परमप्प) परमात्मा (सुद्ध) शुद्ध, आनंदमयी (अन्मोयं) अनुमोदना करो, लीन रहो, आलंबन लो, स्वीकार करो। विशेषार्थ -आत्मज्ञान प्राप्त करने का उपाय कहते हैं कि बुद्धि के सदुपयोग से आत्मज्ञान होता है, भेदविज्ञान से आत्मज्ञान होता है। जिनवाणी श्रवण से अपने स्वरूप को जानने पर आत्मज्ञान होता है। मैं आत्मा शुद्ध परमात्मा हूँ ऐसा स्वीकार करना ही आत्मज्ञान है इससे कर्म मल स्वयं क्षय होते हैं। बुद्धि का सदुपयोग करने पर शान शुद्ध होता है कि मैं इन शरीर वर्ण गंध रस स्पर्शादि सबसे पृथक्,अंतर में जो विभाव होता है वह मैं नहीं हूँ, ऊंचे से ऊंचे जो शुभ भाव हैं वह भी मैं नहीं हूँ, मेरे नहीं हैं,मैं तो सबसे भिन्न एक मात्र ज्ञान स्वभावी ज्ञाता दृष्टा चैतन्य तत्त्व शुद्धात्मा हूं, ऐसा HE-E-HEE ५२
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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