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गाथा -३८*
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* ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी जाता है और कर्म बंध भी रुक जाता है।
मोक्ष के लिये तो परम ज्ञान ही है,जो कर्म के करने में स्वामित्व रूप कर्तृत्व से रहित है।
जब तक अशुद्ध परिणमन है तब तक जीव का विभाव रूप परिणमन है, उस विभाव परिणमन का अंतरंग निमित्त है- जीव की विभाव परिणमन रूप शक्ति और बहिरंग निमित्त है मोहनीय कर्म का उदय । वह मोहनीय कर्म दो प्रकार का है- मिथ्यात्व मोहनीय और चारित्र मोहनीय ।
जीव का एक सम्यक्त्व गुण है, जो विभाव रूप होकर मिथ्यात्व रूपपरिणमा है। एक चारित्र गुण है, जो विभाव रूप होकर कषाय रूप परिणमा है। जीव के पहले मिथ्यात्व कर्म का उपशम या क्षय होता है, उसके बाद चारित्र मोह का उपशम या क्षय होता है। वीतराग कथित जिनवाणी द्वारा इस बात का बोध होता है कि आत्मा तो त्रिकाल शुद्ध स्वभाव ही है, परम वीतराग ममल स्वभावी है। जो भव्य जीव अपने शुद्ध स्वभाव को पहिचान कर उसकी साधना, आराधना, उपासना करता है वह सारे कर्म कषाय परभावों को जीत लेता है और नि:शंक होकर मोक्षमार्ग में चलता है। हमेशा नन्द, आनंद, सहजानंद में रहता है।
जिनवाणी के स्वाध्याय की विशेषता बताने वाली गाथा आगे कहते हैंसंसार सरनि विलयं, असरन अजित अनिस्ट विलयंति। पर पर्जाव न दिलं, परम सहावेन अवयास विमलं च ॥ ३८॥
अन्वयार्थ - (संसार सरनि विलयं) संसार परिभ्रमण छूट जाता है (असरन) परावलम्बता, पराधीनता (अनित) नाशवान, असत्, विकारी भाव (अनिस्ट) अनिष्ट, मोह, राग, द्वेषादि, द्रव्य भाव नोकर्म (विलयंति) छूट जाते हैं, विला जाते हैं (पर) संसार शरीरादि पुद्गल द्रव्य (पर्जाव) एक समय का चलने वाला परिणमन (न दि8) नहीं देखता (परम सहावेन) परम पारिणामिक भाव, शुद्ध ममल स्वभाव का (अवयास) अभ्यास,साधना से (विमलं च) मलों से रहित, पूर्ण शुद्ध परमात्मा हो जाता है।
विशेषार्थ - जिनवाणी का स्वाध्याय करने अर्थात् अपने जिन स्वभाव की साधना आराधना, स्व अध्ययन करने से संसार परिभ्रमण छूट जाता है।
अशरण, परावलम्बता, पराधीनपना, अनित नाशवान असत् विकारी भाव, अनिष्ट *द्रव्य भाव नोकर्म बंधोदय छूट जाते, विला जाते हैं। सम्यक्दृष्टि ज्ञानी साधक
फिर पर संसार शरीरादि पुद्गल की तरफ तथा एक समय की चलने वाली पर्याय को नहीं देखता। अपने परम पारिणामिक भाव शुद्ध ममल स्वभाव की साधना से सर्व कर्म मलों से रहित पूर्ण शुद्ध परमात्मा हो जाता है।
जिन स्वभाव जिनवाणी की महिमा किसी विरले भव्य जीव को आती है, उस आत्मानुभव के उद्योत होने पर मिथ्यात्व का अंधकार स्वयं लुप्त हो जाता है। ज्ञान की किरणें सर्वत्र उद्योत करने लगती हैं। वस्तु का यथार्थ बोध हो जाता है। पर से राग-द्वेष दूर होकर समता रस का स्वयं उछाल होकर वीतरागता और केवलज्ञान प्रगट हो जाता है।
यह शुद्ध चैतन्य मूर्ति जिनस्वभाव आत्मा, स्वयं के रागादि परिणमन में निमित्त अर्थात् कारण रूप नहीं है किन्तु आत्मा में रागादि उत्पन्न होने का निमित्त कारण पर द्रव्य का संबंध ही है। वस्तु का ऐसा ही स्वभाव है कि वह निमित्त रूप पर संग से ही नैमित्तिक भाव को प्राप्त होता है। जैसे-सूर्यकांत मणि स्वयं पार्थिव है वह ज्वाला रूप परिणत स्वयं नहीं होता किन्तु सूर्य का निमित्त पाकर वैसा परिणमता है, इसी प्रकार आत्मा स्वभावत: शुद्ध चैतन्य स्वरूप है तथापि संसार दशा में अशुद्ध है ; यद्यपि अशुद्ध चैतन्य ही रागादि का उपादान कारण है तथापि वह स्वयं बिना निमित्त के रागादि विभाव रूप परिणमन नहीं करता, उसके रागादि का निमित्त कारण उन कर्मों का उदय है, जो इस जीव ने अपनी अनादिकालीन अशुद्ध अवस्था में बांध रखे हैं।
वस्तु के परिणमन दो प्रकार के हैं- स्वभाव रूप परिणमन और विभावरूप परिणमन । स्वभावरूप परिणमन तो स्वयं होता ही है उसमें वस्तु स्वयं उपादान रूप कारण और कालद्रव्य उसके परिणमन में सहज उदासीन निमित्त है।
विभाव रूप परिणमन जीव और पुद्गल इन दो द्रव्यों में ही होता है, विभाव परिणमन में दोनों ही एक दूसरे के निमित्त भी बन जाते हैं।
जिनवाणी का स्वाध्यायी, जिन स्वभाव का अनुभवी, सम्यकदृष्टि जीव उक्त प्रकार से अपनी निज आत्मा रूप वस्तु के स्वभाव को, रागादि से भिन्न जानता है इसलिये अपने में रागादि रूप विभाव परिणाम नहीं करता है अत: रागादि का कर्ता भी नहीं है। प्रतिकूल निमित्तों के होने पर भी बुद्धिमान पुरुष अपना कार्य साधता है उसमें उसका निज का पुरुषार्थ कारण है।
जिनागम की जो सदा अच्छी रीति से उपासना करता है उसे सात गुणों की प्राप्ति होती है -
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