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गाथा-३६.३७*-*-*-31--2-H-HE
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* ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी *उसके गुण में या पर्याय में प्रवेश नहीं कर सकते; इसलिये एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का * कुछ भी नहीं कर सकता, ऐसी वस्तु स्थिति की मर्यादा है और फिर प्रत्येक द्रव्य * में अगुरुलघुत्व गुण है क्योंकि वह सामान्य गुण है, इस गुण के कारण कोई किसी * का कुछ नहीं कर सकता, सब द्रव्य अपने-अपने में परिपूर्ण शुद्ध प्रदेशी हैं इसलिये
आत्मा परद्रव्य का कुछ नहीं कर सकता, शरीर को हिला डुला नहीं सकता तथा द्रव्य कर्म या कोई भी परद्रव्य जीव का कुछ नहीं कर सकता। कभी कोई हानि नहीं पहुंचा सकता, इस प्रकार जिनवाणी के माध्यम से यह निश्चय करने से जगत के पर पदार्थों के कर्तृत्व का जो अभिमान आत्मा के अनादिकाल से चला आ रहा है, वह दोष मान्यता में से और ज्ञान में से दूर हो जाता है। जीव अपने चैतन्य स्वभाव में लीन रहकर ज्ञानानंद स्वभाव परमात्म पद मुक्ति की प्राप्ति करता है।
जिनवाणी की विशेषता बताने वाली गाथा आगे कहते हैंजिनियं अभाव सुभावं, भय रहियं निसंक संक विलयंति। सहज सरूवं पिच्छदि, जिनियं अजित पर्जाव उववन्नं ॥३६॥ जिनियं कषाय भावं, पर दव्वं परिनाम सुद्ध अवयासं। सर्द्धसद्ध सरूवं, जिन उत्तं जिनवरेंदेहि ॥३७॥
अन्वयार्थ - (जिनियं) जीत जाते हैं, जीत लिया है (अभाव) नास्तिकपना, अभावपना (सुभाव) स्वभाव से (भय रहियं) भय रहित हो गये, जिनको कोई भय न रहा (निसंक) नि:शंक,शंका रहित (संक विलयंति) शंकायें विला गईं (सहज सरूवं) सहज स्वरूप को (पिच्छदि) पहिचानते हैं, अनुभव करते हैं (जिनियं) जीत लेते हैं, जीत जाते हैं (अनित पर्जाव) नाशवान पर्याय (उववन्न) उदय होने वाली, पैदा होने वाली।
(जिनियं) जीत लेते हैं, जीत लिया (कषाय भावं) कषाय भावों को (पर दव्वं) पर द्रव्य के (परिनाम) परिणाम (सुद्ध अवयासं) शुद्ध स्वभाव के अभ्यास
से (सुद्धं सुद्ध सरूवं) शुद्ध ही शुद्ध स्वरूप है, परम वीतराग ममल स्वभाव है * (जिन उत्तं) जिनवाणी में कहा है (जिनवरेंदेहि) जिनेन्द्र परमात्माओं ने।
विशेषार्थ - जिनेन्द्र परमात्माओं ने जिनवाणी में कहा है कि आत्मा परम वीतराग ममल स्वभाव शुद्धह शुद्ध स्वभावी है। इस शुद्ध स्वभाव की साधना और अभ्यास से कषाय भाव, परद्रव्य के परिणामों को जीता जाता है। जो अपने सहज स्वरूप को पहिचानते हैं अनुभव करते हैं, वह अपने स्वभाव से, अभाव भाव
नास्तिकपने को जीत लेते हैं, उन्हें कोई भय नहीं रहता, वह नि:शंक हो जाते हैं, उनकी सारी शंकायें विला जाती हैं और उदय में चलने वाली नाशवान पर्याय को जीत लेते हैं अर्थात् वे किसी भी पर्याय, भाव, क्रिया से डरते नहीं है, महत्व नहीं देते, परवाह नहीं करते, अच्छा-बुरा नहीं मानते, अपने ज्ञान स्वभाव का आश्रय कर नि:शंक दृढ स्थित रहते हैं, यही इन कर्म, कषाय, भाव, क्रिया पर्यायादि परद्रव्य को जीतना है कि फिर उस ओर दृष्टि नहीं देते।
ज्ञान आत्मा का स्वाभाविक गुण है किंतु राग-द्वेष आदि वैभाविक अवस्थायें हैं अत: न ज्ञान राग है और न राग ज्ञान है। ज्ञान तो स्व-पर प्रकाशक है किंतु राग का अनुभव तो होता है परंतु उसमें पर स्वरूप का वेदन नहीं होता अत: वह अचित्त है और ज्ञान चिद्रूप है, जो स्थिति राग की है वही द्वेष, मोह, क्रोधादि की है।
वचन और मन आंतरिक हैं, वचन अंतर्जल्परूप है, मन विकल्प है। जब मैं आंतरिक वचन रूप और मन रूप नहीं हूँ तो बाह्य शरीर रूप और द्रव्य वचन रूप क्रिया आदि का कर्ता कैसे हो सकता हूँ? इस प्रकार अपने शुद्ध स्वरूप को जानने वाला इन सबसे भिन्न रहता है, भाव क्रिया पर्याय का परिणमन अपने में चलता है, ज्ञानी ज्ञायक रहता है, यही इन सबको जीतना है जिससे इनका पुन: बंध नहीं होता।
जो किसी से भी नहीं डरता, इस लोक और पर लोक की आकांक्षा नहीं करता, किसी से ग्लानि नहीं करता, मिथ्या मूढता से ग्रसित नहीं होता, सदा अपनी शक्तियों को पुष्ट करता है, रत्नत्रय रूप मार्ग से कभी विचलित नहीं होता और परमार्थ से मोक्ष के मार्ग निज आत्म स्वरूप का ही अवलोकन किया करता है तथा जो सदा आत्मीय अचिंत्य शक्ति विशेष को प्रकाशित किया करता है, ऐसा नि:शंकित भाव जिनवाणी के स्वाध्याय से प्रगट होता है।
जैसे आत्मा और ज्ञान का तादात्म्य सम्बंध होने से आत्मा नि:शंक होकर ज्ञान में प्रवृत्ति करता है। यह ज्ञान क्रिया आत्मा की स्वभाव भूत है अत: निषिद्ध नहीं है; परंतु आत्मा और क्रोधादि कषाय आस्रव का तो संयोग संबंध होने से दोनों भिन्न हैं किंतु अज्ञान के कारण जीव उस भेद को नहीं जानकर क्रोधादि में आत्म रूप से प्रवृत्ति करता है अत: क्रोधरूप, रागरूप, मोहरूप परिणमन होता है, इसी प्रवृत्ति रूप परिणाम को निमित्त करके स्वयं ही पुद्गल कर्म का संचय करता है, जो भेदज्ञान पूर्वक भिन्न-भिन्न जानता है उसके एकत्व का अज्ञान मिट
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