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________________ गाथा-३४,३५ - ----- -- E-5-5 卷卷长长长长各类 E-ME * ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी * है। शास्त्रों का तो हो सके उतना न्यूनाधिक अभ्यास कर जो केवल आत्म हित * हेतु ही तत्त्व निर्णय करे वही ज्ञानी धर्मात्मा पंडित है। जिनवाणी चार अनुयोग रूप है, उन सभी का तात्पर्य है कि वीतरागता पूर्वक संसार के जन्म-मरण के चक्र से छूटने का पुरुषार्थ करना ही सारभूत है। जिसे जिनवाणी रूपी समुद्र मंथन से शुद्ध चिद्रूप रत्न प्राप्त हुआ है वह मुमुक्षु चैतन्य प्राप्ति के परम उल्लास में कहता है कि मुझे सर्वोत्कृष्ट चैतन्य रत्न मिला, अब मुझे अन्य कोई कार्य नहीं, अन्य कोई वाच्य नहीं, अन्य कोई ध्येय नहीं, अन्य कुछ भी श्रेय नहीं है, यह जिनवाणी की परम महिमा है। प्रश्न - जिनवाणी द्वारा चैतन्य आत्मा को जान लेने से लाभ क्या है? जिनवाणी के श्रवण, सत्संग, स्वाध्याय से ही मिथ्यात्व भाव को जीता जाता है, इसी से राग-द्वेष और विषय विला जाते हैं। जिनवाणी के स्वाध्याय से ही कुज्ञान और ज्ञानावरण कर्म जीते जाते हैं तथा त्रिविध योग से सब कर्मों को जीत लिया जाता है। जिनवाणी की महिमा अगम अपार है। जो भव्य जीव सच्चे मन से श्रद्धा भक्ति पूर्वक जिनवाणी का सेवन, श्रवण, स्वाध्याय, सत्संग करता है, उसे वस्तु स्वरूप का बोध होता है, मिथ्यात्व विला जाता है। अपने चैतन्य स्वरूप में लीन रहने से विविध योग के द्वारा सारे कर्म क्षय हो जाते हैं। चिदानंद चैतन्य स्वभाव से मुक्ति की प्राप्ति होती है। जिनवाणी की श्रद्धा भक्ति करने वाला जिन कहलाता है, सम्यक्दृष्टि जीव को ही जिन कहते हैं। संसार के कारण राग-द्वेष, मोह हैं, उनको जिसने जीत लिया है वही जिन है। जिन्होंने राग-द्वेषादि को तथा कर्म रूपी महा योद्धाओं को जीत लिया है व जिनको काल का चक्र नाश नहीं कर सकता अर्थात् शाश्वत अविनाशी है उन्हें ही जिन कहा गया है। संसारी जीव जिन विकारों से संसार में कष्ट उठाते हैं, उन सबको जिसने जीत लिया वही जिन है। संसार में जीव का सबसे बड़ा बैरी मिथ्यात्व है, जिसके कारण वह अपने शुद्ध स्वरूप को भूला हुआ है। जिस पर्याय में जन्म लेता है उसको ही अपना मान लेता है व इन्द्रियों के विषय सुख में तृष्णातुर रहता है इसलिये चाहे जिस देव (कुदेव, अदेव) की मान्यता मानता है, चाहे जिस गुरु (कुगुरु, अगुरु) के पग पड़ता है, चाहे जिस शुभाशुभ क्रिया को धर्म क्रिया मानकर अंधा होकर सेवन करता है। इसी मिथ्यात्व के कारण अंधा जीव इष्ट पदार्थों में राग व अनिष्ट पदार्थों में द्वेष करता है तथा विषयों का लंपटी बना रहता है, इसी के कारण सर्व ज्ञान कुज्ञान कहलाता है। ज्ञानावरण कर्म के कारण प्राणी अज्ञानी बने रहते हैं। आठों ही द्रव्य कर्म, राग द्वेषादि भाव कर्म, शरीरादि नो कर्म यह जीव के बैरी हैं जो संसार की चार गति चौरासी लाख योनियों में भ्रमण कराते हैं। जिनवाणी के स्वाध्याय, श्रवण, सत्संग से ही जीव को अपने चैतन्य स्वरूप का बोध होता है । सम्यक्दर्शन होने पर जिन कहलाता है। स्वरूप साधना से जिन, जिनवर, परमात्मा होता है। आत्मा और परद्रव्य सर्वथा भिन्न हैं, एक का दूसरे में अत्यंत अभाव है। एक द्रव्य उसका कोई गुण या पर्याय, दूसरे द्रव्य में इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - जिन उवएसं सारं, सारं तिलोयमन्त सुपएसं । चेयन रूव संजुत्तं, चेयन आनन्द कम्म विलयति ॥ ३४ ॥ जिनयति मिथ्या भावं, रागं दोषं च विषय विलयंति। कुन्यान न्यान आवरनं, जिनियं कम्मान तिविहि जोएन ॥ ३५॥ अन्वयार्थ - (जिन उवएसं सारं) जिनेन्द्र के उपदेश का सार, जिनवाणी (सारं) श्रेष्ठ, सारभूत है (तिलोयमन्त) तीन लोक के समस्त द्रव्य (सुपएसं) शुद्ध प्रदेशी हैं (चेयन रूव संजुत्तं) चैतन्य स्वरूप में लीन रहने (चेयन आनन्द) चैतन्य आनंद, चिदानंद, ज्ञानानंद से (कम्म विलयंति) कर्म विला जाते हैं। (जिनयति) जीत लेता है (मिथ्या भावं) मिथ्यात्व भाव को (रागं दोषं) राग द्वेष (च) और (विषय) विषय, पांच इन्द्रिय के विषय भोग (विलयंति) विला जाते हैं (कुन्यान) कुज्ञान (न्यान आवरन) ज्ञानावरण (जिनियं) जीते जाते हैं (कम्मान) सर्व कर्म, द्रव्य कर्म, भाव कर्म, नो कर्म (तिविहि जोएन) त्रिविध योग, मन वचन काय की एकाग्रता से । विशेषार्थ- जिनेन्द्र परमात्मा के उपदेश के सार स्वरूप जिनवाणी का स्वाध्याय करने से तीन लोक के समस्त द्रव्य शुद्ध प्रदेशी हैं, अपने-अपने स्वरूप में स्थित हैं, इस बात का बोध होता है। इस वस्तु स्वरूप को समझकर जो जीव अपने चैतन्य स्वरूप में लीन रहते हैं, चिदानंद स्वभाव की साधना करते हैं उनके कर्म विला जाते हैं। **** * ** टू -E-E E-ME E-
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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