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गाथा-३३**
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********** श्री उपदेश शुद्ध सार जी कर्तृत्व भाव विलीन हो चुका है।
जिस वस्तु का महात्म्य दृष्टि (मान्यता) में से चला गया उस वस्तु के प्रति * कोई राग-द्वेष नहीं होता।
ज्ञानी पुरुषों को समय-समय में अनंत संयम परिणाम वर्धमान होते हैं ऐसा सर्वज्ञ ने कहा है यह सत्य है । वह संयम, विचार की तीक्ष्ण परिणति से ब्रह्म स्वरूप के प्रति स्थिरता होने से उत्पन्न होता है।
ज्ञानी की वाणी पूर्वापर विरोध रहित होती है, आत्मार्थ उपदेशक और अपूर्व अर्थ का निरूपण करने वाली होती है तथा अनुभव सहित होने से आत्मा को सतत् जाग्रत करने वाली होती है। शुष्क ज्ञानी की वाणी में तथानुरूप गुण नहीं होते।
जिस प्रारब्ध को भोगे बिना दूसरा कोई उपाय नहीं है, वह प्रारब्ध ज्ञानी को भी भोगना पड़ता है। सर्व विभाव से उदासीन और अत्यंत शुद्ध निज पर्याय का सहज रूप से सेवन करने से आत्मा कर्म बंधन से मुक्त होता है यही मोक्षमार्ग है।
ऐसा श्री जिनेन्द्र परमात्मा ने जिनवाणी में कहा है, इसको श्रद्धा सहित स्वीकार करने से आत्म कल्याण होता है।
प्रश्न - जिनवाणी की प्रामाणिकता क्या है? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - बावन अव्यर सुद्ध, न्यानं विन्यान न्यान उववन्न । सुद्धं जिनेहि भनियं, न्यान सहावेन भव्य उवएसं ॥ ३३॥
अन्वयार्थ - (बावन अष्यर सुद्ध) बावन अक्षर शुद्ध होते हैं उनसे शास्त्र अर्थात् जिनवाणी की रचना होती है (न्यानं) शास्त्र से अर्थबोध ज्ञान होता है (विन्यान) अर्थ बोधज्ञान से भेदविज्ञान होता है (न्यान उववन्न) भेदविज्ञान से आत्मज्ञान पैदा होता है (सुद्धं जिनेहि भनियं) ऐसा शुद्ध अक्षर ज्ञान जिनेन्द्रों ने कहा है (न्यान सहावेन) ज्ञान स्वभाव का (भव्य उवएस) भव्य जीवों को उपदेश दिया है।
विशेषार्थ - अ आ इ ई उ ऊ ऋऋ ल ल ए ऐ ओ औ अं अ: यह सोलह स्वर होते हैं। क ख ग घ ङ, च छ ज झ ञ,ट ठ ड ढ ण, त थ द ध न, पफ व भ म, य र ल व श ष स ह यह तेतीस व्यंजन होते हैं। क्ष त्र ज्ञ यह तीन संयोगी अक्षर होते हैं, ऐसे कुल बावन अक्षर होते हैं, यह सब शुद्ध होते हैं। इन्हीं के
संयोग से शास्त्र, ग्रन्थ, पुस्तक आदि की रचना होती है। ज्ञानी, अज्ञानी द्वारा इनका जैसा प्रयोग किया जाता है वैसे शब्द भाषा और अर्थ हो जाता है। जिनेन्द्र परमात्मा की दिव्य ध्वनि द्वारा शुद्ध अक्षर, ज्ञान स्वभाव आत्मा का भव्य जीवों को उपदेश दिया है। उनकी वाणी का संग्रह जिनवाणी कहलाती है। जिनेन्द्र परमात्मा वीतरागी सर्वज्ञ हितोपदेशी आप्त हैं, इनके द्वारा कथित जिनवाणी श्री कहिये, शोभनीक, मंगलीक, जय जयवंत, कल्याणकारी, महासुखकारी है। जिनवाणी (शास्त्र) स्वाध्याय से अर्थ बोध ज्ञान, उससे भेदविज्ञान और भेदविज्ञान से आत्मज्ञान पैदा होता है। जिनेन्द्र के वचन सत्य हैं, ध्रुव हैं, प्रमाण हैं इसलिये जिनवाणी की प्रामाणिकता है। यही भव्य जीवों का उपकार करने वाली, वीतराग वाणी, द्वादशांग वाणी कहलाती है।
वीतरागता बढ़े और कषाय घटे,ऐसा जिसका प्रयोजन हो वही सत्शास्त्र, जिनवाणी है। मोक्षमार्ग तो वीतराग भाव है अत: जिन शास्त्रों में किसी भी प्रकार से राग-द्वेष, मोह भावों का निषेध कर वीतराग भाव प्राप्ति का प्रयोजन प्रगट किया हो वे शास्त्र ही पढ़ने व सुनने योग्य हैं।
जो पुरुष भक्ति से जिनवाणी को पूजते हैं, वे वास्तव में जिन भगवान को ही पूजते हैं क्योंकि सर्वज्ञ देव, जिनवाणी और जिनेन्द्र देव में कुछ भी अंतर नहीं कहते हैं।
जिन शास्त्रों में श्रृंगार भोग कौतूहलादि के पोषण द्वारा राग भाव की, हिंसा-द्वेषादि के द्वारा द्वेष भाव की अथवा अतत्त्व श्रद्धान के पोषण द्वारा मोह भाव की पुष्टि की हो वे शास्त्र नहीं, शस्त्र हैं अत: ऐसे शास्त्रों को न पढ़ना चाहिये न सुनना चाहिये।
संसार का लेखा-जोखा कैसे रखना चाहिये व उन्हें कैसे समझना चाहिये, इसमें तो बुद्धिमानी पूर्वक प्रवृत्ति करे परंतु आत्म कल्याण हेतु क्या करना चाहिये, क्या नहीं करना चाहिये? कौन से शास्त्र पढ़ने चाहिये? इसकी परीक्षा न करे तो उसे मोक्षमार्ग नहीं मिलता।
वक्ता को शास्त्र वाचन कर आजीविकादि लौकिक कार्य साधने की इच्छा नहीं होना चाहिये तथा अनीति रूप लोक निंद्य कार्यों की प्रवृत्ति न हो। जो शब्द की उपयुक्तता के प्रयोजन से व्याकरणादि का अध्ययन करता है उसे तो विद्वत्ता का अभिमान है। वह तो वाद-विवाद के उद्देश्य से अवगाहन करता है सो लौकिक प्रयोजन है। चतुराई प्रदर्शन हेतु किये गये शास्त्राभ्यास में आत्मा का हित नहीं
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