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-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
असत् - क्षणिक, अभूतार्थ, व्यवहार, भेद, पर्याय, भंग, अविद्यमान यह सब एकार्थ हैं। जीव में होने वाला विकार भाव असत् है क्योंकि वह क्षणिक है, नाशवान है।
जीव अनादि काल से इस असत् विकारी भाव पर दृष्टि रख रहा है इसलिये उसे पर्याय बुद्धि, अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि मूढ़ कहा जाता है। अज्ञानी जीव इस असत् क्षणिक भाव को अपना मान रहा है अर्थात् वह असत् को सत् मान रहा है इसलिये इस भेद को जानकर जो जीव असत् को गौण करके सत् स्वरूप को लक्ष्य करके अपने ज्ञायक स्वभाव की ओर उन्मुख होता है, वह मिथ्याज्ञान को दूर करके सम्यक्ज्ञान प्रगट करता है वही पंडित ज्ञानी है।
स्वामी देहालय सोई सिद्धालय, भेउ न रहे । जं जाके अन्मोय, स न्यानी मुक्ति लहे ॥ परमानंद सा दिस्टा, मुक्ति स्थानेषु तिष्टिते । सो अहं देह मध्येषु सर्वन्यं सास्वतं ध्रुवं ॥ कर्म अस्ट विनिर्मुक्तं मुक्ति स्थानेषु तिस्टिते । सो अहं देह मध्येषु, यो जानाति स पंडिता ॥
● जिसने अपने सत्स्वरूप को जान लिया वह ज्ञानी अपने ममल स्वभाव की साधना करके कर्मों को क्षय करता हुआ मुक्ति मार्ग पर चलता है तथा इसी विज्ञानमयी आत्म स्वरूप का उपदेश देता है वही पंडित है। कथनी करनी भिन्न जहाँ, धर्म नहीं पाखंड वहाँ ।
लोग न समझें इसलिये विरोध भले करें किन्तु यहाँ यथार्थ स्वरूप (तत्त्व) का विचार किया जा रहा है। औषधि रोगी की इच्छानुसार नहीं होती। जगत रोगी है, ज्ञानीजन उसी के अनुकूल रुचिकर तत्त्व का स्वरूप नहीं कहते किंतु वे वही कहते हैं जो यथार्थ वस्तु स्वरूप होता है।
परमात्म रूप वीतरागी त्रिकाली आत्मद्रव्य ही उपादेय है, इसके अतिरिक्त कोई निमित्त या किसी प्रकार का राग विकल्प उपादेय नहीं है, यह सब तो मात्र जानने योग्य है, एक परम शुद्ध स्वभाव ही आदरणीय है। भाव नमस्कार रूप पर्याय भी निश्चय से आदरणीय नहीं है, इस प्रकार परम शुद्धात्म स्वभाव को ही उपादेय रूप से अंगीकार करने वाला पंडित ज्ञानी है।
ज्ञानी की दृष्टि अखंड चैतन्य में भेद नहीं करती, साथ में रहने वाला ज्ञान विवेक करता है कि यह चैतन्य के भाव हैं, यह पर हैं। दृष्टि (श्रद्धा, मान्यता,
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गाथा ३२ -*-*-*-*-*
विश्वास, प्रतीति) ऐसे परिणाम नहीं करती कि इतना तो सही है, इतनी कचास है। ज्ञान सभी प्रकार का विवेक करता है। जिसने शांति का स्वाद चख लिया, उसे राग नहीं रुचता, वह विभाव परिणति से दूर भागता है।
अज्ञानी ने अनादि काल से अनंत ज्ञान आनंदादि समृद्धि से भरे हुए निज चैतन्य चैत्यालय को ताले लगा दिये हैं और स्वयं बाहर भटकता रहता है। ज्ञान बाहर से ढूंढता है, आनंद बाहर से ढूंढता है, सब कुछ बाहर से ढूंढता है, स्वयं भगवान होने पर भी भीख मांगता रहता है।
ज्ञानी ने निज चैतन्य चैत्यालय के ताले खोल लिये हैं, अंतर में ज्ञान, आनंद आदि की अटूट समृद्धि देखकर उसका अनुभव कर परम विश्रांति के लिये बाहर पर पर्याय से उपयोग हटाकर, ममल स्वभाव की साधना करता है। सतत् वीतराग मार्ग पर बढ़ता जाता है। उसकी भावना होती है कि स्वरूप में कब ऐसी स्थिरता होगी, जब श्रेणी मांड़कर वीतराग दशा प्रगट होगी ? कब ऐसा अवसर आयेगा जब स्वरूप में उग्र रमणता होगी और आत्मा का परिपूर्ण स्वभाव, केवलज्ञान प्रगट होगा ? कब ऐसा परम ध्यान जमेगा कि आत्मा शाश्वत रूप से आत्म स्वभाव में ही रह जायेगा ? ऐसी भावना सहित उग्र पुरुषार्थ करता है जिससे कर्मक्षय होने से मुक्ति मार्ग पर आगे बढ़ता है अर्थात् संयम, तप, वीतरागता, साधुपद प्रगट होने लगता है।
ज्ञानी धर्मी जीव, रोग की, वेदना की या मृत्यु की चपेट में नहीं आता क्योंकि उसने शुद्धात्मा की शरण प्राप्त की है। विपत्ति के समय वह आत्मा में समता शांति धारण करता है। विकट प्रसंग में वह निज शुद्धात्मा की शरण विशेष लेता है । मरणादि के समय पंडित ज्ञानी धर्मी जीव शाश्वत ऐसे निज सुख सरोवर
में विशेष विशेष डुबकी लगाता है। जहाँ रोग नहीं है, वेदना नहीं है, मरण नहीं है, शांति की अटूट संपत्ति भरी है, वह शांति, समाधि पूर्वक देह छोड़ता है उसका जीवन सफल है, धन्य है ।
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वास्तविकता तो यह है कि जिस काल में ज्ञान से अज्ञान निवृत्त हुआ, उसी काल में ज्ञानी मुक्त है, देहादि में अप्रतिबद्ध है, सुख-दुःख, हर्ष-शोकादि में अप्रतिबद्ध है। ऐसे ज्ञानी को कोई आश्रय या आलंबन नहीं है। निराश्रय ज्ञानी को तो सभी समान हैं अथवा ज्ञानी सहज परिणामी है, सहज स्वरूपी है, सहजानंद में स्थित है। ज्ञानी सहजरूप से प्राप्त उदय को भोगते हैं। सहजरूप से जो कुछ होता है, वह होता है। जो नहीं होता वह नहीं होता है। वे कर्तृत्व रहित हैं उनका
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